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जैनधर्म के चौबीस तीर्थंकर
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पिताश्री सिद्धार्थ और माताश्री त्रिशला भी अति उत्सुक थे कि शीघ्रातिशीघ्र महावीर का विवाह कर दें। इसी समय कलिंग के बसन्तपुर के महासामन्त ने अपनी कन्या "यशोदा" का विवाह महावीर से करने का प्रस्ताव भेजा।
महावीर के विरक्त मनोदशा से सभी परिचित थे। मित्रों के माध्यम से उनके विचार जानने का प्रयत्न माता-पिता ने किया, किन्तु महावीर ने कहा, "मोहग्रस्त मित्रों? तुम्हारा ऐसा क्या आग्रह है, क्योंकि स्त्री आदि परिग्रह भव-भ्रमण का ही कारण है और "भोगे रोगभ्यम्" से कष्ट ही है। मेरे माताश्री पिताश्री को जीवित रहते हुए मेरे वियोग का दुःख न हो, इस हेतु से दीक्षा लेने को उत्सुक होता हआ भी मैं दीक्षा नहीं ले रहा हैं।"
सिद्धार्थ और त्रिशला को महावीर का मन्तव्य ज्ञात हो गया, किन्तु वे किसी भी रूप में महावीर को विवाहित देखना चाहते थे। अन्ततः माताश्री त्रिशला स्वयं महावीर के पास आई। महावीर ने तुरन्त खड़े होकर अपनी माताश्री का आदर किया और कहने लगे- मैं स्वयं आ जाता, आप क्यों आई। त्रिशला ने कहा-पुत्र! हम दोनों (माता-पिता) तुम्हें विवाहित देखना चाहते हैं, तभी हमें तृप्ति होगी। माताश्री की ममता परख महावीर ने विवाह की स्वीकृति दे दी, तथा कलिंग राजकुमारी "यशोदा" के साथ उनका पारिणग्रहण हो गया। महावीर एवं यशोदा ने एक कन्या को जन्म दिया, जिसका नाम उन्होंने "प्रियदर्शना" रखा।
"श्वेताम्बर-परम्परा" महावीर के वैवाहिक जीवन की पुष्टि कर एक पुत्री होने तक का उल्लेख करती है, जबकि "दिगम्बर-परम्परा" उन्हें अविवाहित मानती है।
दिगम्बर मतावलम्बी यह तथ्य पुष्ट करते हैं कि विवाह का प्रस्ताव आया अवश्य किन्तु महावीर ने अमान्य कर दिया। वह जीवनभर अविवाहित ही रहे। इस आजन्म-ब्रह्मचर्य की प्रामाणिकता के लिए दिगम्बर अनेक उद्धरण प्रस्तुत करते हैं;
"वासुपूज्यो महावीरो मल्लि पाश्वों यदुत्तमः। "कुमार" निर्गता गेहात् पृथिवीपतयोऽचरे।।41 "णेमी मल्ली वीरो कुमार कालमि वासुपुज्जो य। पासो विय गहिदलवो सेस जिणां रज्ज चरिमम्मि।।" "वासुपूज्यस्तना मल्लि नमिः पार्वेऽथ सन्मतिः।
कुमारा: पंच निष्क्रान्ताः पृथिवीपतयः परेः।।" वास्तव में यह विषय बड़ा विवादास्पद है। महावीर के वैवाहिक जीवन की यथार्थता को आधुनिक-विद्वान साहित्य के अतल में "पैठकर उजागर करने का प्रयास कर रहे हैं।
महावीर जन्म से ही बड़े दयालु थे। उन दिनों यज्ञों में निरीह पशुओं की हत्या देखकर महावीर का हृदय पिघल गया। यद्यपि वर्द्धमान-महावीर का प्रारम्भिक-जीवन साधारण गृहस्थ के समान व्यतीत हुआ, पर उनकी प्रवृत्ति, सांसारिक जीवन की ओर नहीं थी। वह "प्रेय" मार्ग को छोड़कर "श्रेय" मार्ग की ओर जाना चाहते थे।
माताश्री एवं पिताश्री के जीवित रहने तक महावीर "प्रवज्या" न लेने का संकल्प
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