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स्वर्ण-जयन्ती गौरव-ग्रन्थ
यथाः
"धृत्वा शेखर पट्टहारपदकं ग्रैवेयकालम्बकम्। केयूरांगढ़मध्यवन्धूरकटीसूत्रं व मुद्रान्वितम्।। चिन्हत्कुण्डल-कर्णपूरममलं पाणिद्वये कंकणम्।
मन्जीरं कटकं पदे जिनपतेः श्रीकन्धमुद्रांकितम्।।15 वर्द्धमान की प्रतिभा के अनुसार कलाचार्य के पास उन्हें विद्याध्ययन के लिए भेजा गया किन्तु, वे तो सभी विद्याओं के ज्ञाता थे। अपने "पूर्व जन्म" के संस्कारों की प्रबलता के कारण उन्हें विद्या-प्राप्ति में जरा भी परिश्रम नहीं करना पड़ा।
"वर्द्धमान" जब लगभग 8 वर्ष के थे, एक बार अपने साथियों के साथ प्रमद-वन में क्रीड़ा करने गये;
"पम्यवणासित्ति गहोष्टाने।" यह खेल वक्षों को लक्ष्य करके खेला जाता था:
"तरूप तेसु-रुक्खेसु जो पद्म विलयाति-जो पदमं ओलुभति सो वेडरावाणि वाहेति।।36
जब वे अपने साथियों के साथ खेल रहे थे, तभी इन्द्र द्वारा प्रेरित संगमदेव उनकी परीक्षा करने आया;
"वट वृक्षमथेकदा महान्तं, सह डिभेराधिसव वर्द्धमानम्।
रयमाणमदीकय संगमाख्ये, विबुधस्त्रासयितु समाससाद।।37 सर्प के रूप में उसने वर्द्धमान को भयभीत करना चाहा। सब लड़के तो फुफकारते हुए सर्प को देखकर भाग गये, किन्तु वर्द्धमान जरा भी भयभीत नहीं हुए।
"वर्द्धमान के चलधर, कालधर व पदधर नाम के तीन साथी भी वहीं थे।''38
बड़े साहस के साथ उन्होंने सर्प की पूंछ पकड़कर दूर फेंक दिया। अपनी पीठ पर बैठाकर भी देव ने उन्हें डराना चाहा, किन्तु सफल नहीं हुआ। अन्ततः वर्द्धमान के साहस को परख देव ने उन्हें "महावीर" की महत्ता से अलंकृत किया। इन्द्र ने महावीर के साहस की सराहना की, तभी वे वर्द्धमान "महावीर" कहलाने लगे। इसी प्रकार वर्द्धमान की वरीयता को परख कर उन्हें अनेक नामों से सम्बोधित किया गया;
"सन्मतिर्महतिर्वीरो महावीरोऽन्त्य काश्यपः।
नाथान्वयो वर्द्धमानो व्यत्तीर्थमिह साम्प्रतम्।।139 महावीर के साहस, पौरुष और प्रतिभा से सब लोग बेहद प्रभावित हुए। इतनी कम उम्र में वर्द्धमान ने जो कर दिखाया, वह अन्यत्र सम्भव नहीं। यहीं नहीं वरन् इसी अवस्था में सत्य, अहिंसा, अस्तेय आदि के अंकुर भी उनमें उभरने लगे;
"स्वायुराधब्त वर्षेभ्यः सर्वेषां परतो भवेत्।।
उदिताष्ट कषायाणां तीर्थेणां देश संयमः।।40 यौवन के प्रथम चरण पर ही वे चढ़े थे कि उनके विवाह के प्रस्ताव आने लगे।
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