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स्वर्ण-जयन्ती गौरव-ग्रन्थ
पहले ही कर चुके थे, अतः इसका उन्होंने पूर्ण पालन किया। उनके स्वर्गवासी होते ही ज्ञातृक लोगों का राजा अब सिद्धार्थ का ज्येष्ठ पुत्र "नन्दिवर्धन" बने। अपने पिता की मृत्यु के अनन्तर महावीर ने अपने अग्रज "नन्दिवर्धन" से "प्रवज्या" लेने की इच्छा व्यक्त की, पर नन्दिवर्धन ने कहा- अभी माता-पिता के वियोगजन्य-दुःख को तो हम भूल ही नहीं पाये कि इसी बीच तुम भी प्रवज्या की बात कहते हो। यह तो घाव पर नमक छिड़कने जैसा है। अत: कुछ काल के लिए ठहरो, फिर प्रवज्या लेना, तबतक हम शोक रहित हो जाएंगे,
"अच्छह कंचिकालं, जाव अम्हे-विसोगाणि जाताणि||42 इस समय महावीर की भरी जवानी की अवस्था अर्थात् 28 वर्ष की थी। अग्रज की बात उन्होंने स्वीकार कर दो वर्ष के लिए और घर पर रहना स्वीकार कर लिया। ये दो वर्ष उनकी साधना के ही रूप में व्यतीत हुए, क्योंकि विरक्तभाव से वे चिन्तन-मनन के साथ-ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए अपना जीवन व्यतीत करते;
"अविसाहिए दुबेवासे सीतोदगममोचदाणिक्खते,
अफासुगं आहारं पस्संतं य-अणाहारेतो अविसाहिए दुवेजासे, सीतोदं-अमोन्याणिक्संत।''43
यही नहीं वरन् वे भूमि पर शयन करते हुए क्रोधादि पर संयम कर एकत्व-भाव से रहते थे।
अन्ततः 30 वर्ष के यौवनकाल में महावीर की "दीक्षा" का दिन निश्चित हुआ। राजा नन्दिवर्धन के नेतृत्व में 108 स्वर्ण, रौप्य आदि कलशों को बनवाकर बड़ी सजधज, हाथी-घोड़े एवं अपार जन-समूह के साथ "हेमन्त-ऋतु" के प्रथम मास मगशिर-कृष्ण-दशमी-तिथि को सुव्रत-दिवस, विजय मुहूर्त के चतुर्थ प्रहर में उत्तरफाल्गुनी नक्षत्र में "वीर-दीक्षा" का समारोह हुआ। इन्द्र ने स्वयं सब व्यवस्था संभाली। अपार जन-समूह के समक्ष वर्द्धमान ने प्रतिज्ञा की:
"सव्वं मे अकरणिज्जं पावं कम्म।" अर्थात् अब मेरे लिए सभी पाप कर्म अकरणीय होंगे। यही नहीं वरन् पुनः कृत-संकल्प हुए कि:
"करेमि समाइयं सव्वं सावजं जोगं पच्चक्खामि।" आज से सम्पूर्ण सावद्यकर्म का तीन करण और तीन योग से त्याग करता हूँ।
असीम वैभव-विलास एवं समृद्धि को लात मारकर कष्टों एवं विपत्तियों से जूझने के लिए तपस्वी-जीवन में अवतरित होते हुए, उन्हें देख देव, मनुष्य आदि सभी चकित रह गए, जबकि महावीर ने पुनः संकल्प किया कि
आज से साढ़े बारह वर्ष पर्यन्त जबतक केवलज्ञान उत्पन्न न हो तबतक मैं देह की ममता छोड़कर रहूँगा अर्थात् हम बीच में देव, मनुष्य या तिर्यक् जीवों की ओर से जो भी उपसर्ग, कष्ट उत्पन्न होंगे, उनको समभावपूर्वक सम्यक्-रूपेण सहन करूंगा।
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