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जैनधर्म के चौबीस तीर्थंकर
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युवावस्था में वैवाहिक एवं राज्य सुख भोगने के बाद पौष-कृष्ण-सप्तमी को शुक्लध्यान के बल से ज्ञानवरणादि चार घातिया कर्मों का क्षय कर चन्द्रप्रभ ने "केवलज्ञान" और पूर्णता" की प्राप्ति की। अन्ततः चन्द्रप्रभ को "भाद्रपद-कृष्ण-सप्तमी को सम्मेदशिखर पर निर्वाण प्राप्त हुआ। (9) सुविधिनाथ (कुसुमदन्त, पुष्पदन्त)
नवें तीर्थकर "सुविधिनाथ"को काकन्दी-नरेश सुग्रीव की रानी रामादेवी ने 16 शुभ स्वप्नों के बाद मार्गशीर्ष कृष्ण-पंचमी को जन्म दिया। गर्भकाल में मां को "पुष्प" का दोहद उत्पन्न हुआ तथा सब प्रकार से कुशलता रही, अतः नामकरण, "सुविधिनाथ" और "पुष्पदन्त" दोनों हुआः
"कुशला सर्वविधिषु, गर्भस्थेऽस्मिन् जन्मभूत्। पुष्पदोहदतो दन्तोदुगमोऽस्यसमभादिति।। सुविधिः पुष्पदन्तरचेत्यभिधानद्वयं विभोः।
महोत्सवेन चकाते, पितरो दिवसे शुभे।।" युवावस्था में पाणिग्रहण एवं राज्यपद के बाद सुविधिनाथ ने दीक्षा ग्रहण की। साधनारत कार्तिक-शक्ला-ततीया को इन्हें केवलज्ञान की प्राप्ति हुई।"चर्तुविध-संघ" की स्थापना कर सुविधिनाथ भाव तीर्थकर कहलाए। अन्ततः भाद्रपद-कृष्ण-नवमी को सम्मेदशिखर पर निर्वाण प्राप्त हुआ। (10) शीतलनाथ
दसवें तीर्थकर "शीतलनाथ", महिलपुर नरेश-दृढ़रथ की रानी नन्दादेवी की कुक्षि से 16 शुभ स्वप्नों के पश्चात् माघ कृष्ण द्वादशी को पैदा हुए। राजा दृढ़रथ ने बाल से शीतलता की अनुभूति कर तदनुसार "शीतलनाथ" नामकरण कियाः
राज्ञः सन्सप्तमत्यंगं, नन्दास्पर्शेन शीत्यभूत।
गर्भस्थेऽस्मिज्जिति तस्य, नाम शीतल इत्यभूत।। पूर्व तीर्थकरों के समान सांसारिक जीवन कुछ समय तक व्यतीत करने के बाद शीतलनाथ ने दीक्षा ग्रहण कर ली। शुक्लध्यान में पौष-कृष्ण-चतुर्दशी को "केवलज्ञान" प्राप्त कर अन्ततः वैशाख-कृष्ण-द्वितीया को निर्वाण को प्राप्त हुए। (11) श्रेयांसनाथ
___ "श्रेयांसनाथ" ग्यारहवें तीर्थकर थे। सिंहपुरी के राजा विष्णु की रानी विष्णुदेवी ने फाल्गुन-कृष्ण-द्वादशी को इन्हें जन्म दिया। बालक के जन्म से सबका श्रेयकल्याण हुआ। अत: इनका नामकरण "श्रेयांसनाथ" उसके अनुरूप ही किया गया:
"जिनस्य मातापितरावुत्सवेन महीयसा।।
अभिधा श्रेयसि दिने, श्रेयांस इति चक्रतः।।" सांसारिकता से श्रेयांसनाथ को भी विराग हो गया। अतः श्रमण-दीक्षा, फाल्गुन-त्रयोदशी को ग्रहण कर साधना में लीन हो गए। "केवलज्ञान" की प्राप्ति के पश्चात् एक हजार
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