________________
346
स्वर्ण-जयन्ती गौरव-ग्रन्थ
(5) सुमतिनाथ
सुमतिनाथ पांचवें तीर्थकर हुए। अयोध्या नरेश मेघ की रानी मंगलावती से वैशाख-शुक्ला अष्टमी को मध्यरात्रि को मघा-नक्षत्र में सुमतिनाथ का जन्म हुआ। युवावस्था में राज्य एवं सांसारिक सुख भोगकर इसमें कष्ट का अनुभव करने लगे, तब सुमतिनाथ ने दीक्षा ग्रहण करने का निश्चय किया। वैशाख-शुक्ला नवमी के दिन दीक्षा ग्रहण कर बीस (20) वर्ष तक तप के बाद, चैत्र शुक्ला एकादशी को "केवलज्ञान" की प्राप्ति हुई। तथा "चतुर्विध-संघ" की स्थापना कर तीर्थकर कहलाए। अन्ततः चैत्र-शुक्ला नवमी को पुनर्वसु-नक्षत्र में चार अघाति कर्मों का क्षय कर, सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हो निर्वाण पद प्राप्त किया। (6) पद्मप्रभ
__छठे तीर्थंकर "पद्मप्रभ" कौशाम्बी नरेश की रानी सुसीमा की कुक्षि में 16 शुभ स्वप्नों के बाद आये तथा कार्तिक कृष्ण-द्वादशी को चित्रा नक्षत्र में पैदा हुए। गर्भकाल में इनकी माताश्री को पद्म-शैय्या पर सोने का दोहद उत्पन्न हुआ था तथा पद्म के समान शरीर होने के कारण बालक का नाम पद्मप्रभ रखा गया:
"पद्मशय्या दोहदोऽस्मिन्, यन्मातुर्गर्भभवती।
पद्माभहेत्यक पदप्रभ इत्याहयत् पिता।" युवावस्था में वैवाहिक जीवन एवं राज्य सुख भोगने के बाद, इन्होंने दीक्षा ग्रहण की तथा साधना के पश्चात् "केवलज्ञान" प्राप्त कर "पद्मप्रभ" ने अन्ततः मोक्ष को प्राप्त किया। (7) सुपार्श्वनाथ
सातवें तीर्थकर, सुपार्श्वनाथ, वाराणसी-नरेश प्रतिष्ठसेन की रानी पृथ्वी से ज्येष्ठ-शुक्ला-द्वादशी को विशाखा-नक्षत्र में पैदा हुए। गर्भकाल में इनकी माताश्री के पार्श्व शोभन रहे, अतः इनका नामकरण "सुवार्श्वनाथ" किया गयाः "भगवम्मि य गुवभगए जणणी जाया सुपासत्ति तयो भगवओ सुपासन्तिणामं कयं।"5
यौवनावस्था में वैवाहिक एवं राज्य-सुख प्राप्त कर, सुपार्श्वनाथ दीक्षा की ओर उन्मुख हुए। जो ज्येष्ठ-शुक्ला-त्रयोदशी को पूर्ण हुई। कठोरतम साधना के पश्चात् फाल्गुण-शुक्ला षष्ठी को विशाखा-नक्षत्र में इन्हें केवलज्ञान प्राप्त हुआ। अन्ततः सुपार्श्वनाथ फाल्गुन-कृष्ण-सप्तमी को सम्मेदशिखर से मोक्ष प्राप्त कर सिद्ध हो गये। (8) चन्द्रप्रभ
आठवें तीर्थकर "चन्द्रप्रभ" पौष-कृष्ण-एकादशी को चन्द्रपुरी के राजा महासेन की रानी सुलक्षणा की कुक्षि से पैदा हुए। गर्भकाल में रानी को चन्द्रपान का दोहद हुआ था तथा चन्द्रप्रभा से सुन्दर बालक का नाम तद्नुसार "चन्द्रप्रभ" रखा गयाः
"गर्भस्थेऽस्मिन् माऽरासच्चन्द्रं पानाय दोहदः। चन्द्राभश्वैष इत्याहच्चन्द्रप्रभममुं पिता।।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org