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जैनधर्म के चौबीस तीर्थंकर
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जम्बूद्वीप के प्रथम धर्मचक्रवर्ती सम्राट थे। इनके सौ पुत्र थे। समभाव तथा कुशलता से राज्य करने के बाद और कई यज्ञ करने के बाद, भगवान ऋषभदेव ने अपने ज्येष्ठ और वीर पुत्र "भरत को राज्य सौंप कर, सर्वत्यागी-महायोगी बन गए थे। वे सर्वभूतों पर आत्मवत् दृष्टि रखते थे, और गगनपरिधान (नग्न) थे। उसके ज्येष्ठ पुत्र भरत, भारत के प्रथम चक्रवर्ती सम्राट थे, इनके कुशलतापूर्वक शासन एवं नेतृत्व के कारण ही सम्राट भारत के नाम पर ही देश का नाम भारत पड़ा। ऋषभदेव, विष्णु के अवतार माने जाते हैं। ये 84. 00, 300 वर्ष तक जीवित रहे।
ऋषभदेव का भारतीय संस्कृति में विशिष्टतम स्थान है। इन्हें जैन-धर्म का संस्थापक माना जाता है। (2) अजितनाथ
अजितनाथ दूसरे तीर्थकर थे। ये अयोध्या में राजा जितशत्रु की धर्मपत्नी महारानी विजया की कुक्षि से माघ शुक्ल अष्टमी के दिन रोहिणी नक्षत्र में पैदा हुए। विजय के उपलक्ष्य में इनका नाम "अजित" रखा गया। बड़े होने पर राज्यसत्ता प्राप्त कर भी अजितनाथ का मन ज्ञान-ध्यान की ओर था, अतः दीक्षा ग्रहण कर पौष शुक्ल एकादशी को उन्होंने ज्ञान प्राप्त किया। अन्ततः एक हजार मुनियों के साथ सम्मेदशिखर पर एक मास के अनशनपूर्वक चैत्र शक्ल पंचमी को मृगशिर-नक्षत्र में सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हुए। यही तीर्थकर "अजितनाथ" का निर्वाण दिवस है। (3) संभवनाथ
तीसरे तीर्थकर "संभवनाथ" श्रावस्ती के राजा जितारी की धर्मपत्नी सैनादेवी की कुक्षि से मार्ग शु0 15 को पैदा हुए। इनके आविर्भावकाल में पर्याप्त साम्ब, मूंग आदि की पैदावार हुई, शस्यश्यामला धरती लहलहा उठी, अत: नामकरण "संभवनाथ" किया गया। यौवनावस्था में कुछ ही दिनों सांसारिक जीवन एवं राज्य का सुख प्राप्त कर ये दीक्षा की
ओर उन्मुख हुए। अन्ततः 14 वर्ष की कठोर साधना के बाद संभवनाथ को "केवलज्ञान" प्राप्त हुआ। चैत्र शुक्ला-छठ को मृगशिर-नक्षत्र में इन्होंने सम्मेदशिखर पर मोक्ष प्राप्त किया। (4) अभिनन्दननाथ
चौथे- तीर्थकर अभिनन्दननाथ थे। इनका जन्म अयोध्या के राजा शंवर की धर्मपत्नी सिद्धार्थी की कुक्षि से माघ-शुक्ला-द्वितीया को पुष्य नक्षत्र में हुआ। बालक के स्वागत में असीम उल्लास का वातावरण सर्वत्र बन गया। अतः इनका नामकरण "अभिनन्दननाथ" किया गया।
__ "भगवम्मि गभत्थे कुलं रज्जं बागरं अभिणंदह त्रित्तेण जगणि जागाएहि वियारिऊण गुणनिप्फण्णं अभिणंदणोति णामं कय। युवावस्था में कुछ ही दिनों तक राज्य-सुख भोगकर ये "दीक्षा" की ओर उन्मुख हुए तथा कठोर साधना के बाद पौष-शुक्ला चतुर्दशी को "केवलज्ञान" की उपलब्धि की। अन्ततः वैशाख-शुक्ला अष्टमी को सम्मेदशिखर पर अभिनन्दननाथ ने निर्वाण प्राप्त किया।
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