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जैनधर्म के चौबीस तीर्थंकर
डॉ. शर्मिला जैन*
जैनधर्म भारतभूमि का प्राचीन धर्म है। यह धर्म आचरण पर विशेष बल देता है। आचरण के द्वारा संसारी आत्मा परमात्मा बन जाती है। जैनधर्म का आचार मार्ग अपनाकर जिन महापुरुषों ने तीर्थंकर पद पाया है, उनकी संख्या जैनधर्म में चौबीस मानी गई है। यहाँ उन चौबीस तीर्थकरों का परिचय प्रस्तुत है
(1) ऋषभदेव
भगवान ऋषभदेव जैनधर्म के प्रथम तीर्थंकर थे, जिन्हें आद्य प्रवर्तक या आदि तीर्थकर भी कहा जाता है। इनके जन्म का समय " अवसर्पिणी-काल" है। ये "नाभिराज" “कुलकर” की धर्मपत्नी मरुदेवी की कुक्षि में आषाढ़ - कृष्णा - चतुर्दशी के दिन, उत्तराषाढ़ नक्षत्र में, चन्द्रयोग आने पर आये तथा नौ महीने साढ़े आठ दिन गर्भ में रहने के बाद, चैत्र-कृष्ण अष्टमी को आधी रात के समय पैदा हुए। इनकी जंघा पर वृषभ (बैल) का चिन्ह था, इसलिए इनका नाम ऋषभदेव रखा गया। जबकि अन्य स्थल पर, चिन्ह उरु-स्थल पर बताया गया है। नामकरण के अनेक उल्लेख हैं। ऋषभदेव एक वर्ष के हुए कि एक दिन राजा नाभि की गोद में बैठ वात्सल्य सुख दे रहे थे, तभी सौधर्मेन्द्र वहां आये। खाली हाथ आना उचित न समझकर एक इक्षुदण्ड सौधर्मेन्द्र हाथ में लेते आये थे। ऋषभदेव ने इन्द्र की भावना को समझ इक्षुदण्ड लेने के लिए हाथ बढ़ाया और उसे ग्रहण कर प्रसन्न हो गए, इसलिए देवेन्द्र ने उनके कुल का नाम, "इक्ष्वाकुवंश" रख दिया। उनके पूर्वज इक्षुरस पीते थे, अतः उनके "गोत्र" का नाम 'काश्यप" पड़ा।
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ऋषभदेव बड़े हुए। वे सर्वगुण सम्पन्न थे, अतः उनकी महत्ता के अनुसार उन्हें, प्रथम - जिन, प्रथम केवली, प्रथम तीर्थकर, और प्रथम धर्मचक्रवर्ती कहा गया है: अरहा कोसलिए पढमराया पढमजिणे, पढम केवलि, पढमतित्थयरे, पढमधम्मवर चक्कवट्टी समुपज्जित्थे' |
यही नहीं वरन् जैनाचार्य उन्हें योगविद्या का भी प्रणेता मानते हैं। पुरुषों की 72 कलाओं, स्त्रियों के 64 गुणों व 100 शिल्पों का श्रेय भी ऋषभदेव को ही है।
भागवत के पंचम स्कन्ध में एक उपाख्यान् है, ऋषभदेव के बारे में कि, वे
व्याख्याता, दर्शनशास्त्र, दानापुर डिग्री महिला महाविद्यालय, दानापुर (पटना), बिहार |
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