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स्वर्ण-जयन्ती गौरव-ग्रन्थ
स्थापना करें, क्योंकि बिहार में संस्कृत और पाली के उच्च अध्ययन का प्रबंध हो गया है, पर अभी तक प्राकृत के उच्च अध्ययन का प्रबंध नहीं हो सका है"।
इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु डॉ. नथमल टाटिया के संयोजकत्व में एक उपसमिति का गठन किया गया। सर्व श्री लल्लन जैन, नेमिचन्द्र शास्त्री, प्रो० दलसुख मालवणिया, डॉ. ए. एस. अल्टेकर, जगदीशचन्द्र माथुर आई. सी. एस. (अध्यक्ष), प्रो. योगेन्द्र मिश्र इस उपसमिति के सदस्य थे। श्री बद्रीनाथ वर्मा, शिक्षामंत्री, बिहार ने इसका समर्थन किया। जून 1952 में श्री जगदीश चन्द्र माथुर ने 'वैशाली इन्स्टीच्यूट ऑफ पोस्ट ग्रेजुएट स्टडीज एण्ड रिसर्च इन प्राकृत एण्ड जैनोलॉजी' वैशाली संघ की विस्तृत योजना बनाई और बिहार सरकार के समक्ष विचारार्थ प्रस्तुत की। प्रथम योजनानुसार वैशाली संघ ने 5 लाख पूंजीगत व्यय एवं 5 लाख चालू खर्चों (प्रथम पांच वर्ष हेतु) की योजना निर्मित की और उसके दान हेतु अपील-प्रारूप बनाया। इसी बीच दिनांक 04.02.1953 को मुख्यमंत्री एवं अध्यक्ष, वैशाली संघ डॉ. श्री कृष्ण सिंह के निवास पर वैशाली संघ की साधारण सभा हुई। इसमें यह निर्णय लिया गया कि वैशाली संघ द्वारा इन्स्टीच्यूट स्थापित करने की अपेक्षा बिहार राज्य शासन द्वारा इसकी स्थापना की जाये और संघ ने इस उद्देश्य हेतु जो भी धनराशि एकत्रित की है वह शासन को उपलब्ध करायी जाये। इसी दिन (04.02.1953) को भारत के सभी समाचार पत्रों में इन्स्टीच्यूट की स्थापना हेतु दान देने की अपीलें प्रकाशित हुईं। संस्थान के स्वरूप और उद्देश्यों का विचार
सन् 1945 में वैशाली संघ की शिक्षा केन्द्र खोलने की योजना थी। उद्देश्य था कि वैशाली भ० महावीर की जन्म स्थली है दूसरे संस्थान उच्च स्तरीय शोध के द्वारा सुदूर ग्रामीण अंचल के सामान्य नागरिकों के जीवन से सम्बंध स्थापित करेगा। राधाकृष्णन समिति के अनुसार संस्थान प्राकृत और जैन शिक्षा के सम्बन्ध में उच्च अध्ययन एवं शोध के साथ ग्रामीण विश्वविद्यालय के रूप में विकसित होगा। बाद में सन् 1953 में महामहिम राज्यपाल (बिहार) श्री आर. आर. दिवाकर महोदय के मन में नया विचार उद्भूत हुआ। उन्होंने सझाव दिया कि संस्थान जैन और प्राकृत विद्या का उच्च अनुसंधान केन्द्र तो बने ही, साथ ही अहिंसा दर्शन का तुलनात्मक अध्ययन और जीवन में अहिंसा के आचरण पर भी शोध हो। इस प्रकार राज्यपाल महोदय के पुनीत सुझाव के अनुसार संस्थान के उद्देश्यों में अहिंसा को भी सम्मिलित किया गया। यह सम्भावना व्यक्त की गयी कि कालान्तर में संस्थान इन उद्देश्यों के क्रियान्वयन की उच्च / अनोखी तकनीकि विकसित करेगा। जैन दर्शन में अहिंसा की विस्तृत और गूढ़ व्याख्या की गई है। भ. महावीर ने सिद्धत्व की प्राप्ति में अहिंसा का प्रयोग किया। म. गांधी ने राजनैतिक स्तर पर स्वतंत्रता की प्राप्ति में अहिंसा का प्रयोग किया। मानव जीवन के महत्तम कल्याण की अनेक विधाओं में अहिंसा दर्शन किस प्रकार फलीभूत एवं व्यवहारिक सूत्र देगा, इस सम्बन्ध में गहन शोध और प्रयोगों की आवश्यकता है। शोध वही उपयोगी होता है जो जीवन का अंग बने और जो जीवन को स्पंदित करे। मात्र दार्शनिक चर्चा से जीवन सुखमय-आनंदमय नहीं होता।
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