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तीर्थंकर ऋषभदेव का निर्वाण स्थल
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सुर, असुर और राजा लोग उनकी वन्दना करते रहते हैं। दुःषम (पंचम) काल में तस्कर आदि के द्वारा वे नष्ट हो जायेंगे।
नाभिराय के निर्वाण के विषय में श्रीमद्भागवत में महर्षि शुकदेव ने लिखा है
"विदितानुरागमापौर प्रकृतिं जनपदो राजा नाभिराजत्मजं समयसेतु रक्षायामभिषिच्य सह मरुदेव्या विशालायां प्रसन्ननिपुणेन तपसा समाधियोगेन महिमानमवाप।"
अर्थात् जनता भगवान ऋषभदेव को प्रेम करती थी और उनमें श्रद्धा रखती थी। यह देखकर राजा नाभिराय धर्म मर्यादा की रक्षा के लिए अपने पुत्र ऋषभदेव का राज्याभिषेक कर विशाल (बदरिकाश्रम) में मरुदेवी सहित प्रसन्न मन से घोर तप हुए यथाकाल जीवन्मुक्ति को प्राप्त हुए।
जहां माता मरुदेवी ने तप किया था, वहां लोगों ने मन्दिर बनाकर उनके प्रति अपनी भक्ति प्रकट की। यह मन्दिर माणा गांव के निकट है। सम्भवतः जिस स्थान पर बैठकर नाभिराय ने जीवन्मुक्ति प्राप्त की थी, उस स्थान पर उनके चरण स्थापित कर दिए गए। ये चरण बदरीनाथ मन्दिर के पीछे पर्वत पर बने हए हैं। उनके निकट ही भगवान ऋषभदेव का विशाल मन्दिर निर्मित है, जिसकी मूर्ति दिगम्बर जैन तीर्थंकर ऋषभदेव की
है।6।
पद्मचरित से ज्ञात होता है कि अञ्जना और पवनञ्जय का विवाह मानसरोवर के समीप ही हुआ था। युद्ध के प्रसंग में वहां पड़ाव डालने पर उसने विवाह के समय सेवित स्थानों को गौर से देखा। अञ्जना की याद के कारण वे सब स्थान उसे नेत्रों के सामने आने पर शोक के कारण हो गए और मर्मभेद करने वालों के समान दुःसह हो उठे।
पवनंजय ने विद्या के बल से एक ऐसा मनोहर महल बनाया था, जिसमें अनेक खण्ड थे तथा जिसकी लम्बाई, चौड़ाई और ऊँचाई अनुरूप थी। उस महल के ऊपर के खण्ड पर मित्र के साथ स्वच्छन्द वार्तालाप करता हुआ पवनंजय उत्कृष्ट आसन पर विराजमान था। युद्ध की वार्ता से उसका हर्ष बढ़ रहा था। पवनंजय झरोखों के मार्ग से किनारे के वृक्षों को तथा मन्द-मन्द वायु से हिलते हुए मानसरोवर को देख रहा था। भयंकर कछुए, मीन, नक, गर्वीले मगर तथा अनेक जल-जन्तु सरोवर में लहरें उत्पन्न कर रहे थे। धुले हुए स्फटिक के समान स्वच्छ तथा कमलों और नीलकमलों से सुशोभित उस सरोवर का जल हंस, कारण्डव, क्रौञ्च और सारस पक्षियों से अत्यधिक सुशोभित हो रहा था। उसके मध्य में भ्रमरियों का उत्कृष्ट झंकार सुनाई देता था। उस सरोवर के किनारे पवनञ्जय ने एक चकवी देखी। वह चकवी अकेली होने के कारण अत्यन्त व्याकुल थी। उसकी करुण दशा देखकर पवनंजय को अञ्जना की याद आई।
कैलाश की आकृति वर्तमान में ऐसे लिंगाकार की है, जो षोडश दल के कमल के मध्य खड़ा हो। इन षोडश दल वाले शिखरों में दो झुककर लम्बे हो गए हैं। इसी भाग से कैलाश का जल गौरीकण्ड में गिरता है। कैलाश इन सब पर्वतों में ऊँचा है। उसका रंग कैसाटी के ठोस पत्थर जैसा है। बर्फ से ढके रहने के कारण यह रजत दिखाई देता है।
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