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तीर्थंकर ऋषभदेव का निर्वाण स्थल
हुआ था। उसका कुमारकाल 70 वर्ष, राज्यकाल 80 वर्ष, छद्मस्थकाल 64 वर्ष, और केवलिकाल 66 वर्ष प्रमाण था । इस प्रकार उसकी आयु एक हजार वर्ष प्रमाण थी। पुण्यास्रव कथाकोश" में सगर चक्रवर्ती के साठ हजार पुत्रों द्वारा कैलाश पर्वत के चारों ओर जल से परिपूर्ण खाई को दण्डरत्न से खोदने की कथा आई है। प्रभाचन्द्रकृत आराधना कथा प्रबंध में भी यह कथा है।
उत्तराध्ययन सूत्र की सुखबोधा टीका में लिखा है कि एक बार कोडिन्न, दिन्न और सेवाली तीनों तापस अपने अपने पांच-पांच सौ शिष्यों के साथ अष्टापद पर्वत पर चढ़ने के लिए आए। कोडिन्न एकान्तर तप करता और कन्दमूल खाता था। दिन्न बेले तेले की तपस्या करता और भूमि पर गिरे हुए पत्ते खाकर निर्वाह करता था। सेवाली तेले - तेले की तपस्या करता था और सेवाल खाकर जीवन निर्वाह करता था ।
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इससे स्पष्ट है कि कैलाश पर्वत तापसों का भी निवास था। मुनि नथमल ने 'उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन' में चित्त सम्भूति प्रकरण के सन्दर्भ में एक कथा दी है - इसी भरत क्षेत्र के वैताढ्य पर्वत की दक्षिण श्रेणी में शिव मन्दिर नाम का नगर था। वहाँ ज्वलन सिंह नामक राजा राज्य करता था । उसकी महारानी का नाम विद्युत् शिखा था। उन दोनों की दो पुत्रियाँ थीं। उनके बड़े भाई का नाम नाट्योन्मत्त था। एक बार उनके पिता अग्निशिख मित्र के साथ गोष्ठी में बैठे थे। उन्होंने आकाश की ओर देखा। अनेक देव तथा असुर अष्टापद पर्व के अभिमुख जिनेन्द्र देव की वन्दनार्थ जा रहे थे। राजा भी अपने मित्र तथा बेटियों के साथ उसी ओर चल पड़ा। सब अष्टापद पर्वत पर पहुंचे। जिनेन्द्रदेव की प्रतिमाओं की वन्दना की। सुगन्धित द्रव्यों से अर्चा की। तीन प्रदक्षिणा कर लौट रहे थे। उन्होंने देखा कि एक अशोक वृक्ष के नीचे दो मुनि खड़े हैं। वे चारणलब्धि सम्पन्न थे। हम उनके पास गए। वन्दना कर बैठ गए। उन्होंने धर्मकथा कही
संसार असार है। शरीर विनाशशील है। जीवन शरदऋतु के बादलों की तरह है। यौवन विद्युत् के समान चंचल है। भोग किंपाक फल जैसे हैं। इन्द्रियजन्य सुख संसार के राग की तरह है। लक्ष्मी कुशाग्र पर टिके हुए पानी की बूंद की तरह चंचल है। दुःख सुलभ है, सुख दुर्लभ है, मृत्यु सर्वत्रगामी है। ऐसी स्थिति में प्राणी को मोह का बन्धन तोड़ना चाहिए | जिनेन्द्रप्रणीत धर्म में मन लगाना चाहिए " |
इससे स्पष्ट है कि अष्टापद पर ऋद्धिधारी जैनमुनि विहार किया करते थे। श्री बाहुवली स्वामी को कैलाश पर्वत से निर्वाण प्राप्त हुआ। इस सम्बन्ध में आचार्य जिनसेन आदिपुराण में उल्लेख करते हैं
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इत्थं स विश्वीद्विश्वं प्रीणयन् स्ववचोऽमृतैः
कैलाशमचलं प्रापत पूतं संनिधिना गुरोः 1136/203
अर्थात् समस्त विश्व के पदार्थों को जानने वाले बाहुबली अपने वचनरूपी अमृत के द्वारा समस्त संसार को सन्तुष्ट करते हुए पूज्य पिता भगवान ऋषभदेव के सामीप्य से पवित्र हुए कैलाश पर्वत पर जा पहुंचे।
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