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________________ 338 स्वर्ण-जयन्ती गौरव-ग्रन्थ से दूसरे युग में कितना अन्तर होगा? युगों का परिवर्तन कितनी बार होता है? युग के कौन से भाग में मनु उत्पन्न होते हैं? वे क्या जानते हैं? एक मनु से दूसरे मनु के उत्पन्न होने तक कितना अन्तराल होता है? इसके सिवाय लोक का स्वरूप, काल का अवतरण, वंशों की उत्पत्ति, विनाश और स्थिति, क्षत्रिय आदि वर्गों की उत्पत्ति भी मैं सुनना चाहता हूँ। महाराज भरत ने जो कुछ पूछा था, उस सबके विषय में भगवान ने क्रमपूर्वक कहा। एक बार राजर्षि भरत को एक साथ तीन समाचार मालूम हुए कि पूज्य पिता को केवलज्ञान हुआ है, अन्त:पुर में पुत्र का जन्म हुआ है और आयुधशाला में चक्ररत्न प्रकट हुआ है। भरत महाराज ने सोचा कि सबसे पहले धर्मकार्य ही करना चाहिए, क्योंकि वह कल्याणों को प्राप्त कराने वाला है। इसलिए जिनेन्द्र देव की सर्वप्रथम पूजन करना चाहिए। भरत ने सेना सहित जाकर भगवान की स्तुति की। अनन्तर तत्वों का स्वरूप पूछा। तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव ने अतिशय गम्भीर वाणी द्वारा तत्वों का विस्तार के साथ विवेचन किया। पुण्यास्रव कथाकोश में जयकुमार तथा सुलोचना से सम्बंधित कथा आई है, जो इस प्रकार है- किसी समय सौधर्म इन्द्र अपनी सभा में व्रत व शील के स्वरूप का निरूपण कर रहा था। उस समय रतिप्रभ नामक देव ने उससे पूछा कि हे देव! जम्बूद्वीप के भीतर स्थित भरत क्षेत्र में इस प्रकार निर्मल शील का परिपालन करने वाला कोई है या नहीं? उत्तर में इन्द्र ने कहा कि कुरुजांगल देश के भीतर स्थित हस्तिनापुर का अधिपति मेघेश्वर निर्मल शील का धारक है। उसकी पत्नी सुलोचना भी निर्मल शील का पालन करने वाली है। उस मेघेश्वर ने चूंकि पूर्वभव में विद्याओं को सिद्ध किया था, इसीलिए उसे एक विद्याधर युगल को देखकर जाति स्मरण हो जाने से वे सब विद्याओं प्राप्त हो गयीं। साथ ही उसकी पत्नी सुलोचना को भी वे विद्यायें प्राप्त हो गयीं हैं। इस समय उसने सुलोचना के साथ कैलाश पर्वत की वन्दना की। तत्पश्चात् उसने समवसरण से निकलकर एक स्थान में सुलोचना के साथ क्रीड़ा की। इस समय सुलोचना को विमान के भीतर नींद आ जाने से जयकुमार वन में क्रीड़ा करता हुआ एक रमणीय शिला को देखकर उसके ऊपर ध्यान से स्थित है। सुलोचना उठी तो वह भी जयकुमार को न देखकर कायोत्सर्ग में स्थित हो गई। रतिप्रेम देव ने देवियों को भेजकर जयकुमार को शील से भ्रष्ट करने का प्रयत्न किया तथा स्वयं सुलोचना के चित्त को चलायमान करने का प्रयत्न किया, किन्तु वे सब सफल नहीं हुए। तब वह देव उन दोनों को एक साथ लेकर हस्तिनापुर गया। वहाँ उसने उन दोनों का गंगाजल से अभिषेक करके स्वर्गीय वस्त्राभूषणों से पूजा की। तत्पश्चात् वह सम्यग्दृष्टि देव स्वर्गलोक वापिस चला गया। पुण्यास्रव कथाकोश में नागकुमार की कथा आई है। उसमें कहा गया है कि प्रतापन्धर मुनि ने चौंसठ वर्ष तक तपश्चरण किया। उन्हें कैलाश पर्वत के ऊपर केवलज्ञान प्राप्त हुआ। उसी प्रकार व्याल, महाव्याल, अच्छेद्य और अभेद्य भी केवलज्ञानी हुए। नागकुमार (प्रतापन्धर) केवली छयासठ वर्ष तक विहार करके उसी पर्वत से मुक्ति को प्राप्त हुए। व्यालादि भी मुक्ति को प्राप्त हुए। वह नागकुमार नेमि जिनेन्द्र के तीर्थ में उत्पन्न Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012064
Book TitlePrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan Vaishali Swarna Jayanti Gaurav Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhchand Jain
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan Vaishali
Publication Year2010
Total Pages520
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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