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स्वर्ण जयन्ती गौरव-ग्रन्थ
अर्थात् अनन्तर भर्त्ता मेरे साथ अत्यन्त वैभव से युक्त होकर जिनेन्द्र भगवान के अतिशय स्थानों में चैत्यवन्दन के लिए उद्यत हुए तथा कहा कि सर्वप्रथम हम अष्टापद पर्वत पर जाकर भुवन को आनन्द देने वाले ऋषभ की अर्चना कर प्रणाम करें। वरांगचरित के 21वें सर्ग में कहा गया है
कैलाशशैले वृषभे महात्मा चम्पापुरे चैव हि वासुपूज्यः ।
दशार्हनाथः पुनरुर्जयन्ते पावापुरे श्रीजिनवर्द्धमानः ।। वरांगचरित-21/91 कैलाश पर्वत पर महात्मा वृषभ, चम्पापुर पर वासुपूज्य, गिरनार पर नेमिनाथ तथा पावापुर में श्रीजिनवर्द्धमान मोक्ष गए।
उत्तर पुराण के अनुसार इस कैलाश पर्वत पर भरत चक्रवर्ती ने महारत्नों से अरहन्त देव के चौबीस मन्दिर बनवाए थे। सगर चक्रवर्ती ने अपने पुत्रो को आदेश दिया था कि तुम लोग उस पर्वत के चारों ओर गंगा नदी को उन मन्दिरों की परिखा बना दो। उन राजपुत्रों ने भी पिता की आज्ञानुसार दण्डरत्न से वह काम शीघ्र ही कर दिया ।
जब सगर के प्रपौत्र भगीरथ ने सगर तथा उसके पुत्रों का सम्मेद शिखर से निर्वाण गमन सुना तो उसका मन निर्वेद से भर गया। उसने वरदत्त के लिए अपनी राज्य श्री सौंपकर कैलाश पर्वत पर शिवगुप्त नामक महामुनि से दीक्षा ले ली तथा गंगा नदी के तट पर प्रतिमायोग धारण कर लिया। इन्द्र ने क्षीरसागर के जल से महामुनि भगीरथ के चरणों का अभिषेक किया, जिसका प्रवाह गंगा में जाकर मिल गया। उसी समय से गंगा नदी भी इस लोक में तीर्थरूपता को प्राप्त हुई ।
1180 से 1240 ई. के मदन कीर्ति ने शासन चतुस्त्रिंशिका में कहा हैकैलाशे जिनबिम्बमुत्तमधमत-सौवर्णवर्णंसुराः ।
वन्द्यन्तेऽद्य दिगम्बरं तद्द्मल दिग्वाससां शासनम् ॥
कैलाश पर्वत पर देव लोग चमकते हुए जिनबिम्बों की वन्दना करते हैं वह निर्मल दिगम्बर शासन आज भी वन्दनीय है।
प्राकृत निर्वाणकाण्ड में कहा गया है
अट्ठावयम्मि उसहो चंपाए वासुपुज्जजिणणाहो । उज्जते नेमिजिणो पावाए णिव्वुदो महावीरो ।।
अर्थात् अष्टापद से जिननाथ ऋषभ, चम्पा से वासुपूज्य, गिरनार से नेमिजिन तथा पावापुर से महावीर निर्वृत्त हुए ।
बारहवीं सदी के बाद के उदयकीर्ति ने अपनी अपभ्रंश रचना तीर्थवन्दना में
कहा है
कइलाससिहरि सिरिरिसहणाहु जो सिद्धउ पयडमि धम्मला हु । पुणु चंपणरि जिणवासुपुज्जु निव्वाणपत्त छंडेवि रज्जु ।।
अर्थात् कर्म रूपी रज्जु त्यागकर ऋषभनाथने कैलाश पर्वत से, तथा वासुपूज्यने चम्पापुर से निर्वाण प्राप्त किया।
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