________________
तीर्थंकर ऋषभदेव का निर्वाण स्थल
335
चक्रवर्ती भरत ने भी कैलाश पर्वत से निर्वाण प्राप्त किया। चक्रवर्ती सागर के साठ हजार पुत्र किसी समय कैलाश पर्वत पर गए। वहां आठ पादस्थान बनाकर दण्डरत्न से भूमि खोदने लगे, परन्तु इस क्रिया से कुपित होकर नागराज ने उन सबको भस्म कर दिया। पद्मपुराण में कहा गया है
अथासौ लोकमुत्तीर्य प्रभूतं भवसागरात्।
कैलाशशिखरे प्राप निवृत्तिं नाभिनंदनः।।4-130. भगवान् ऋषभदेव संसार सागर से अनेक प्राणियों का उद्धारकर कैलाश पर्वत के शिखर से मोक्ष को प्राप्त हुए।
कैलाश पर्वत ही अष्टापद पर्वत है; क्योंकि पद्मपुराण के द्वितीय पर्व में इसे अष्टापद नाम से अभिहित किया है
महिम्ना सर्वसाकाशं संछाहोव व्यवस्थिते।
पर्वतेऽष्टापदे रम्ये भगवानिव नाभिजः ।।2-108 अर्थात् जिस प्रकार अत्यन्त रमणीय अष्टापद पर भगवान् वृषभदेव विराजमान हुए थे, उसी प्रकार उक्त विपुलाचल पर भगवान् वर्द्धमान जिनेन्द्र विराजमान हुए।
एक बार कैलाश पर्वत पर बालि मुनि के तप के प्रभाव से अपना विमान रुका हुआ जानकर रावण कुपित हुआ और विद्याओं की सहायता से उसे समुद्र में फेंकने के लिए तत्पर हो गया। उस पर्वत पर चक्रवर्ती भरत ने नाना प्रकार के सर्वरत्नमयी ऊँचे-ऊँचे जिनमन्दिर बनवाए थे। भक्ति से भरे सुर और असुर प्रतिदिन इनकी पूजा करते थे। इस पर्वत के विचलित होने से ये जिन मन्दिर नष्ट न हो जायें ऐसा विचार कर शुभ ध्यान के निकट ही जिनकी चेतना थी, ऐसे मुनिराज बलि ने पर्वत के मस्तक को अपने पैर के अंगूठे से दबा दिया। ऐसा होने पर रावण पर्वत के भार से दबने लगा। उस समय चूंकि उसने सर्व प्रयत्न से चिल्लाकर समस्त संसार को शब्दायमान कर दिया था, इसलिए वह पीछे चलकर सर्वत्र प्रचलित 'रावण' इस नाम को प्राप्त हुआ। आचार्य पूज्यपाद ने निर्वाण भक्ति में लिखा है
कैलाशशैलशिखरे परिनिर्वृतोऽसौ शैलेषिभावमुपपद्य वृषो महात्मा।।20।। शैलेषी भाव को प्राप्त होकर महात्मा वषभदेव कैलाश पर्वत के शिखर से मुक्त हुए। पद्मपुराण के 98वें पर्व में कहा गया है
ततो भर्तामया सार्धमुधुक्तचैत्यवन्दने। जिनेन्द्रातिशयस्थानेष्वत्यन्तविभक्तान्वितः। अगदीत प्रथमं सीते गत्वाष्टापदपर्वतम्। ऋषभं भुवनानन्दं प्रणंस्यावः कृतार्चनौ।।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org