________________
जैन संस्कृति
329
दो वर्णों की तुलना में वे अधिक सूझ-बूझ वाले थे। अतः ब्राह्मणवाद में या ब्राह्मण परम्परा में ब्राह्मण प्रमुख थे ही श्रमण परम्परा में क्षत्रिय प्रमुख बन गए। श्रमण संस्कृति तथा वैदिक संस्कृति में भेदाभेद
श्रमण संस्कृति तथा वैदिक संस्कृति दोनों ही भारतीय संस्कृति के अंग हैं। चूंकि ये दोनों एक ही संस्कृति में अंगीभूत हैं इसलिए इन्हें बिल्कुल विरोधी तो नहीं कहा जा सकता है। किन्तु दोनों स्वतंत्र रूप से भारतवर्ष में प्रवाहित होती आ रही हैं, इसलिए दोनों को एक मान लिया जाए, ऐसा भी नहीं हो सकता है। तब स्थिति भेदाभेद की बनती है। किसी एक दृष्टि से यदि उनमें भेद दिखाई देता है तो किसी अन्य दृष्टि से अभेद परिलक्षित होता है। इस बात को समझने के लिए हम यहाँ दो बिन्दुओं पर विचार करेंगे। 1. प्रवृत्ति-निवृत्ति
सामान्य तौर से यह माना गया है कि वैदिक परम्परा प्रवृत्ति मार्गी है तथा श्रमण परम्परा निवृत्ति मार्गी। वैदिक परम्परा में यज्ञादि के अनुष्ठान के फलस्वरूप संतान, यश तथा धन सम्पदा की कामना की जाती है जिसे प्रवृत्ति की संज्ञा दी जाती है और वैदिक परम्परा को प्रवृत्ति मार्गी मान लिया जाता है। श्रमण परम्परा में व्रत, योग, साधना, त्याग, तपस्या पर बल दिया जाता है जिससे उसे निवृत्ति मार्गी कहते हैं। इस आधार पर दोनों परम्परा के बीच भेद समझा जाता है। किन्तु इसी तथ्य पर यदि दूसरी दृष्टि से विचार करेंगे तो दोनों में अभेद नजर आएगा।
किसी भी परम्परा में दो प्रधानतः वर्ग होते हैं- (क) त्यागी, संन्यासी जिसमें ऋषिमुनि, श्रमण, साधु-साध्वी होते हैं तथा (ख) गृहस्थ जिन्हें श्रावक-श्राविका कहते हैं। परम्परा कोई भी हो यदि उसमें कोई साधु है, साध्वी है, मुनि, ऋषि है तो उसका जीवन निवृत्तिपरक होगा। क्योंकि प्रवृत्ति मार्ग पर चलकर कोई व्यक्ति साधु, मुनि, ऋषि, संन्यासी नहीं हो सकता है। यज्ञ करके उसके फलस्वरूप संतान, यश, धन-धान्य आदि की प्राप्ति तो कोई गृहस्थ ही करता है, त्यागी-तपस्वी, ऋषि, मुनि नहीं। धर्मात्मा या महात्मा होने के लिए तो निवृत्ति अनिवार्य है। इसी तरह यदि कोई गृहस्थ है, श्रावक है, श्राविका है, पारिवारिक जीवन या सांसारिक जीवन जी रहा है तो उसके जीवन में प्रवृत्ति होगी ही। बिना प्रवृत्ति को अपनाए हुए कोई गृहस्थ नहीं बन सकता है। अर्थात् गृहस्थ के लिए प्रवृत्ति अनिवार्य है। किसी भी परम्परा में न तो मात्र संन्यासी या श्रमण होते हैं और न मात्र गृहस्थ या श्रावक। इसलिए संन्यासी श्रमण की दृष्टि से कोई भी परम्परा निवृत्ति मार्गी हो सकती है और गृहस्थ या श्रावक की दृष्टि से प्रवृत्ति मार्गी। चूंकि श्रमण तथा वैदिक दोनों ही संस्कृतियों में साधु, संन्यासी, मुनि हैं तथा गृहस्थ, श्रावक आदि भी। इसलिए दोनों ही निवृत्तिपरक तथा प्रवृत्तिपरक हैं। 2. श्रमण-ब्राह्मण
वैदिक परम्परा को ब्राह्मण परम्परा कहते हैं तथा जैन-बौद्ध परम्पराओं के लिए श्रमण-परम्परा नाम आता है। दोनों के दो नाम हैं और उन नामों से दोनों में भेद दर्शाया जाता है। किन्तु एक शब्द है- समण-ब्राह्मण। इसके सम्बन्ध में प्राचीन ग्रन्थों में उल्लेख
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org