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________________ 328 स्वर्ण-जयन्ती गौरव-ग्रन्थ यह बोध कराया गया कि क्षत्रिय सिद्धार्थ की पत्नी त्रिशला ने उसका गर्भ ले लिया है। इसके समर्थन में लाला हरजस राय जैन ने जैन वारामासा की निम्नलिखित पंक्ति प्रस्तुत की है .... हरणगमेसी सुर ने आकर त्रिशला के उर दीना उससे छीना621 यह कथा बताती है कि जैन परम्परा में यह अत्यन्त ही सुदृढ़ धारणा है कि किसी भी हालत में तीर्थकर का जन्म किसी ब्राह्मण कुल में नहीं हो सकता है। यद्यपि यह एक धार्मिक कथा है, आस्था है लेकिन इससे इस विचार भी कट्टरता की पुष्टि होती है कि जैन तीर्थकर को क्षत्रिय ही होना चाहिए। 3. जैनों की क्षत्रिय उपाधियाँ जैन लोगों की ऐसी बहुत-सी उपाधियाँ देखी जाती हैं जो क्षत्रियों की होती हैं, जैसे नाहर, सिसोदिया, सोलंकी आदि ये सभी क्षत्रियों के प्रकारों में से हैं। इससे लगता है ये लोग मलतः क्षत्रिय हैं बाद में धर्म परिवर्तन कर लिया है। क्षत्रियों की 'सिंह' उपाधि भी जैन लोगों के नाम के साथ देखी जाती है जैसे धनराज सिंह जैन, जसवन्त सिंह जैन आदि। कुछ लोग सिंह ही नहीं बल्कि अपने नाम के पहले 'कुंवर' भी लिखते हैं जो 'कुमार' का बदला हुआ रूप है और क्षत्रिय राजकुमारों के नाम के साथ व्यवहार किया जाता रहा है। वाराणसी में ही एक मूर्तिपूजक प्रतिष्ठित जैन हैं जिनका नाम कुंवर विजयानन्द सिंह है। इससे स्पष्ट होता है जैन संस्कृति मूलतः क्षत्रिय संस्कृति है। 4. वैवाहिक प्रक्रिया राजस्थान में जैन लोगों में आज भी वैवाहिक प्रक्रिया क्षत्रिय-पद्धति से होती है। दूल्हा पाग बांधकर बगल में तलवार लटकाए हुए घोड़ा पर सवार होकर शादी के लिए प्रस्थान करता है। जब वह कन्या पक्ष के दरवाजे पर पहुंचता है तब बाहरी द्वार पर बंधा हुआ तोरण वह तलवार से काटकर भीतर प्रवेश करता है। यह विधि भी बताती है कि जैन लोग जिन्हें आज वैश्य माना जाता है मूलतः क्षत्रिय हैं जिसकी वजह से उनके बहुत से क्रिया-कलाप वे ही हैं जो क्षत्रियों के होते हैं। 5. राज-प्रधान से धर्म-प्रधान जैन चिन्तक मानते हैं कि जैन संस्कृति अति प्राचीन है। डॉ. पाठक जैसे विद्वान मानते हैं कि आदिकाल से ही भारतवर्ष में दो धाराएं प्रवाहित हो रही हैं - चरण (वैदिक) तथा श्रमण। कुछ लोग यह मानते हैं कि श्रमण परम्परा वैदिक परम्परा की प्रतिक्रिया स्वरूप उत्पन्न हुई। प्रतिक्रिया के रूप में श्रमण संस्कृति की प्रतिष्ठा हुई ऐसा तो नहीं कहा जा सकता है क्योंकि ज्यादा लोग यह मानने वाले हैं कि श्रमण संस्कृति प्राचीन है और बहुत पहले से स्वतंत्र रूप से चली आ रही है। परन्तु वैदिक संस्कृति के प्रति होने वाली प्रतिक्रिया को भी गलत नहीं कहा जा सकता है। यज्ञ तथा ईश्वरवाद के विरोध में प्रतिक्रिया तो हुई थी। जब यह प्रतिक्रिया हुई तब ब्राह्मणवाद के समर्थक ब्राह्मणों से शेष तीन वर्गों के लोग अलग हो गए। उन तीन में क्षत्रिय पहले से शासन और सुरक्षा करने वाले थे यानी राज प्रधान थे ही इसलिए वे लोग धर्म प्रधान भी बन गए। क्योंकि अन्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012064
Book TitlePrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan Vaishali Swarna Jayanti Gaurav Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhchand Jain
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan Vaishali
Publication Year2010
Total Pages520
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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