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________________ 324 स्वर्ण जयन्ती गौरव-ग्रन्थ और 'आजीवक' नाम का एक अपना संघ स्थापित किया । महावीर लाढ़ प्रदेश में गए जो आज के पश्चिम बंगाल में है। उसके वज्रभूमि तथा शुभ्रभूमि क्षेत्रों में उन्हें नाना प्रकार के कष्ट झेलने पड़े। फिर उन्होंने वहाँ पर अपना 9वां वर्षाकाल बिताया। बारह वर्षों तक कठिन साधना करने के बाद 13वें वर्ष की वैशाख पूर्णिमा के दिन उन्हें ऋजुपालिका नदी के किनारे, जृमभिकग्राम नगर के बाहर, श्यामाक कृषिक्षेत्र में एक शाल वृक्ष के नीचे सर्वज्ञता की उपलब्धि हुई। उन्होंने अर्धमागधी में पंचमहाव्रतों का उपदेश दिया। महावीर ने अपने जीवन के अंतिम तीस वर्षों को एक सर्वज्ञ तीर्थंकर के रूप में बिताया। उनका अंतिम वर्षावास पावापुरी में हुआ जहां कार्तिक माह की अमावस्या के दिन उन्होंने मोक्ष प्राप्त किया । महावीर एक उत्तम संघ के प्रधान थे जिसमें 14000 साधु, 36000 साध्वियां, 159000 श्रावक तथा 318000 श्राविकाएँ थीं। इन्हें ही जैन में चार या चार तीर्थ कहते हैं जिनके संस्थापक को तीर्थंकर कहते हैं। उनमें तीन स्तर के लोग थेss - (क) श्रमण-श्रमणी या साधु-साध्वी जैसे इन्द्रभूति गौतम, चन्दना आदि । (ख) श्रावक-श्राविका या गृहस्थ पुरुष-महिला जैसे संख, सुलशा आदि । (ग) समर्थक - जैसे श्रेणिक (बिम्बिसार), कुणिक (अजातशत्रु), प्रद्योत, उदायन, आदि। महावीर के पश्चात् तीसरी शती ई. पूर्व महावीर के बाद जिन जैन संतों के नाम प्रसिद्ध हैं, वे हैंइन्द्रभूति - गौतम, सुधर्मन, जम्बू, भद्रबाहु तथा स्थूलभद्र । इन्द्रभूति गौतम तथा सुधर्मन तो महावीर के गणधर ही थे जो उनके बाद भी जीवित रहे। सुधर्मन को भी महावीर के मोक्ष प्राप्त होने के 20 वर्ष के बाद मोक्ष प्राप्त हुआ। सुधर्मन से पहले इन्द्रभूति मोक्ष प्राप्त कर चुके थे। जम्बूस्वामि उनके शिष्य थे जिन्हें महावीर की मुक्ति के 64 वर्षों के बाद मुक्ति मिली। सुधर्मन की छठी पीढ़ी में भद्रबाहु का नाम आया जिनका समय ई. पूर्व तीसरी शती माना जाता है। वे अन्तिम श्रुतकेवली थे। महावीर के निर्वाण के 170 वर्ष बाद उनकी मृत्यु हुई। स्थूलभद्र को सभी शास्त्रों का ज्ञान था, सिर्फ दृष्टिवाद के चार पूर्वो को छोड़कर। ऐसा माना जाता है कि नेपाल में उन्होंने भद्रबाहु से पूर्वों का ज्ञान प्राप्त किया था जिनमें से 10 के अर्थ तो वे सीख पाए लेकिन चार के अर्थ नहीं जान पाए। उनके बाद से शास्त्रों की क्षति होने लगी । दिगम्बर विद्वानों के अनुसार सभी प्राचीन शास्त्रों का लोप हो गया किन्तु श्वेताम्बर विद्वानों की दृष्टि में अब भी अनेक प्राचीन शास्त्र हैं। श्वेताम्बर मत में भद्रबाहु बहुत दिनों तक नेपाल में ही साधनारत रहे जिसके कारण स्थूलभद्र आदि जैन संत उनसे शास्त्र ज्ञान अर्जित करने के लिए नेपाल गए। किन्तु दिगम्बर मत में भद्रबाहु अन्य साधुओं के साथ दक्षिण भारत लौट आए। वे ही चन्द्रगुप्त के शासन काल यानी 322 से 298 ई. पूर्व में जैन मन्दिर एवं संघ के प्रधान थे । ई. पूर्व द्वितीय शती सुहस्ति, सम्प्रति तथा खारवेल Jain Education International चेलना ई. पूर्व दूसरी शती में राजा सुहस्तिन, सम्प्रति तथा खारवेल हुए जिन लोगों ने For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012064
Book TitlePrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan Vaishali Swarna Jayanti Gaurav Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhchand Jain
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan Vaishali
Publication Year2010
Total Pages520
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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