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जैन संस्कृति
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आज भी वर्तमान वाराणसी के भेलूपुर में पार्श्वनाथ का जन्म स्थान यहाँ के दर्शनीय स्थानों में से एक है। वैदिक परम्परा के लोग वाराणसी को बाबा विश्वनाथ की नगरी कहते हैं तो जैन मतावलम्बी इसे भगवान पार्श्वनाथ की नगरी मानते हैं। महावीर
महावीर चौबीसवें तीर्थकर तथा कालचक्र के अनुसार इस युग के अंतिम तीर्थकर हो गए हैं। तीर्थकर में महावीर का नाम सबसे ज्यादा प्रसिद्ध है। इस कारण जैन संस्कृति या जैन धर्म के विषय में साधारण ज्ञान रखने वाले बहुत से लोग उन्हें ही जैन परम्परा का प्रवर्तक मानते हैं किन्तु बात ऐसी नहीं है। वे तो जैन परम्परा के मात्र उन्नायक थे।
श्वेताम्बर जैन परम्परा के अनुसार महावीर को विक्रमशती के प्रारम्भ से 470 वर्ष पहले मोक्ष प्राप्त हुआ था। दिगम्बर जैन परम्परा के मत में महावीर को मोक्ष की प्राप्ति शकशती के प्रारम्भ से 605 वर्ष पहले हुई थी। किसी भी हिसाब से उनका समय 577 ई. पूर्व निर्धारित होता है और चूंकि उन्होंने 72 वर्ष की आयु में मोक्ष प्राप्त किया इसलिए उनके जन्म का समय 599 ई. पूर्व माना जा सकता है। इससे यह भी ज्ञात होता है कि वे बुद्ध से कुछ वरिष्ठ थे, क्योंकि बुद्ध का समय ई. पूर्व 567 से 487 का माना जाता है। इस प्रकार महावीर तथा बुद्ध दोनों का ही प्रादुर्भाव ई. पूर्व छठी शती में हुआ। विकास की दृष्टि से ई. पूर्व छठी शती को श्रमण संस्कृति का स्वर्गयुग माना जाता है।
महावीर वैशाली के कुण्डपुर या कुण्डग्राम के क्षत्रिय राजा सिद्धार्थ तथा रानी त्रिशला के सुपुत्र थे। वे तीन नामों से जाने जाते हैं(1) वर्धमान- जब महावीर अपनी माता त्रिशला के गर्भ में थे तभी से पारिवारिक सम्पत्ति- सोना, चाँदी, रत्न आदि धन-धान्य की वृद्धि होने लगी। इसलिए उन्हें वर्धमान संज्ञा से सम्बोधित किया गया। (2) श्रमण- वे लगातार तपस्या में प्रसन्नतापूर्वक लगे रहे अतः उन्हें लोगों ने श्रमण कहा। (3) महावीर- उन्होंने सभी भय एवं आतंकों का सामना किया तथा सभी कठिनाइयों एवं कष्टों को सहा। अतः वे महावीर नाम से घोषित किए गए।
महावीर ने तीस वर्ष की आय में संन्यास ग्रहण किया। साधुजीवन में उन्होंने सिर्फ एक वर्ष तक वस्त्र धारण किया। उसके बाद उन्होंने वस्त्र का भी त्याग कर दिया और दिगम्बर या नग्न बन गए। राजगृह के पास नालन्दा में एक जुलाहा के घर पर उन्होंने अपना दूसरा वर्षावास बिताया, जहां गोशाल से उनकी मुलाकात हुई। गोशाल की प्रार्थना करने पर महावीर ने उसे अपना शिष्य बनाया। कुछ दिनों तक दोनों साथ रहे। सिद्धार्थपुर में गोशाल ने एक तिल का पौधा उखाड़कर फेंक दिया जिसके विषय में महावीर ने फली देने की भविष्यवाणी की थी। गोशाल ने समझा कि महावीर की भविष्यवाणी गलत प्रमाणित हो गई किन्तु सौभाग्यवश वर्षा हुई जिससे तिल का पौधा पुनः मिट्टी में लगकर हरा हो गया
और कुछ दिनों के बाद उसमें फली भी लग गई। यह देखकर गोशाल ने ऐसा मत व्यक्त किया कि प्रत्येक चीज पूर्वनिर्धारित है और हर प्राणी में पुनर्जीवन धारण करने की क्षमता है। किन्तु महावीर उसके विचार से सहमत नहीं हुए। फलस्वरूप वह उनसे अलग हो गया
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