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स्वर्ण-जयन्ती गौरव-ग्रन्थ
महाकाव्य का एक हिस्सा है, में कुरुक्षेत्र जो युद्ध क्षेत्र है को धर्मक्षेत्र कहा गया है। साथ ही कृष्ण ने अर्जुन को युद्ध के लिए प्रेरित किया यह कहकर कि तुम क्षत्रिय हो और युद्ध करना ही तुम्हारा धर्म है। इन सब से पहले ही दुर्योधन ने कृष्ण के यह आग्रह करने पर कि सिर्फ पांच गांव ही पाण्डवों को दे दो ताकि आपस का द्वेषभाव समाप्त हो जाए, कहा कि हे केशव बिना युद्ध के मैं सूई के अग्रभाग के बराबर भी उन लोगों को कुछ देने वाला नहीं हूँ। उस विषम स्थिति में, युद्ध समाप्त हो जाने के बाद शान्ति और अहिंसा की बात सामने आती है। महाभारत के शान्तिपर्व में कहा गया है- "अहिंसा स्वतः एक पूर्ण धर्म है और हिंसा एक अधर्म।"51
यह एक बहुत बड़ा चमत्कार जान पड़ता है। युद्ध और द्वेष के हिंसात्मक भाव से ओत-प्रोत लोगों के मन में अहिंसा का भाव जग जाना किसी चमत्कार से कम नहीं है। किन्तु ऐसा हुआ कैसे? यह विचारणीय प्रश्न है। इस सम्बन्ध में ऐसा कहा जा सकता है कि निश्चित रूप से उस समय कोई अहिंसावादी महापुरुष रहा होगा जिसने हिंसावादी युद्ध में मारने और मरमिटने वाले लोगों की दृष्टि में अहिंसा की दिव्य ज्योति भर दी: वे लोग शान्ति तथा अहिंसा के पक्षधर बन गए। वह महापुरुष नेमिनाथ ही रहें होंगे, ऐसा अनुमान करना कोई गलत नहीं होगा। क्योंकि नेमिनाथ की जीवनचर्या में यह बताया गया है कि उनकी साधना-प्रक्रिया का प्रारम्भ अहिंसा को अपनाकर ही होता है।
अतः कालगणना के आधार पर चाहे जो भी निर्णय किया जाए लेकिन महाभारत के अन्त में अहिंसा का प्रतिपादन और नेमिनाथ का अहिंसामय जीवन महाभारतकाल में उनके होने की सम्भावना को सुदृढ करता है और यदि यह मान लिया जाता है तो ऐसा मानने में भी संकोच नहीं होना चाहिए कि वे कृष्ण के चचेरे भाई रहे होंगे। पार्श्वनाथ
पार्श्वनाथ जैन परम्परा में 23वें तीर्थकर के रूप में प्रतिष्ठित हैं। उनका समय ई. पूर्व 9वीं शती माना जाता है क्योंकि वे महावीर से 250 वर्ष पहले हुए थे और महावीर का समय ई. पूर्व छठी शती माना जाता है। वे काशी के राजा अश्वसेन तथा रानी वामा के सुपुत्र थे। उन्होंने तीस वर्ष की आय में संन्यास ग्रहण किया। मात्र 83 दिनों की कठिन तपस्या के फलस्वरूप उन्हें सर्वज्ञता प्राप्त हुई, 70 वर्षों तक उन्होंने अपने ज्ञान-प्रकाश से समाज को आलोकित किया और 100 वर्षों की आयु में उन्हें मोक्ष प्राप्त हुआ। उनके द्वारा प्रतिपादित उपदेशों में अहिंसा, सत्य, अस्तेय तथा अपरिग्रह सिर्फ चार व्रतों को ही बताया गया है। इस सम्बन्ध में जैन विद्वानों का मत है कि ब्रह्मचर्य उनके अंतिम व्रत अपरिग्रह में ही सन्निहित था। एक अन्य धारणा यह भी है कि उनके समय में लोग बहुत ही संयमपूर्ण जीवन व्यतीत करने वाले थे। अतएव उन्होंने ब्रह्मचर्य व्रत प्रतिपादन की आवश्यकता नहीं समझी। किन्तु महावीर के प्रादुर्भाव तक 250 वर्ष व्यतीत हो चुके और लोग धीरे-धीरे अपने पर संयम रखने में कमजोर हो गए। अतः महावीर को पंचमहाव्रतों, अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य तथा अपरिग्रह के उपदेश देने पड़े। पार्श्वनाथ के शिष्य केशी हुए जिनकी भेंट महावीर के प्रथम गणधर इन्द्रमुनि गौतम से श्रावस्ती नगर में हुई थी।
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