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________________ 320 स्वर्ण-जयन्ती गौरव-ग्रन्थ जैन मतानुसार ऋषभदेव सिर्फ प्रथम तीर्थकर ही नहीं थे बल्कि वे सभ्यता और संस्कृति के संस्थापक भी थे। उनसे पहले कोई सांस्कृतिक व्यवस्था नहीं थी। उन्होंने असि, मसि और कृषि की शिक्षा दी। अपने पुत्र भरत को उन्होंने 72 कलाओं की शिक्षा दी। आज का प्रसिद्ध भरतनाट्यम् ऋषभदेव के पुत्र के नाम से ही प्रसिद्ध है। ऋषभदेव ने अपनी बड़ी पुत्री ब्राह्मी को लिपि की शिक्षा दी जो ब्राह्मी लिपि के नाम से जानी जाती है। अपनी छोटी पुत्री सुन्दरी को उन्होंने गणित की शिक्षा दी। इस प्रकार उन्होंने अपने समाज को सभ्य और संस्कृत बनाया। किन्तु ऐसा मान लेने पर यहाँ कई प्रश्न उपस्थित हो जाते हैं। 1. जैन संस्कृति का उद्भव जो लोग यह मान चुके हैं कि आर्य लोगों का भारतवर्ष में आना सही है। उनसे पहले यहाँ पर एक विकसित संस्कृति थी जिसे आर्यों ने अनार्य कहा और उस संस्कृति से ही श्रमण संस्कृति का प्रारम्भ हुआ यानी जैन संस्कृति वैदिक संस्कृति या अन्य संस्कृति की पूर्वगामिनी है। उनके विचार गलत प्रमाणित हो जाएंगे। 2. आदियुग की दो सांस्कृतिक धाराएं- जो लोग यह नहीं मानते हैं कि यहाँ कोई आर्य आया बल्कि सही यह है आदिकाल से ही यहाँ दो धाराएं प्रवाहित हो रही हैं- चरण या वैदिक तथा श्रमण। उनके अनुसार भी यह कहा जा सकता है कि श्रमण परम्परा ऋषभदेव से पहले से आ रही है। यदि ऋषभदेव से ही संस्कृति शुरू हुई होती तो दो सांस्कृतिक परम्पराओं का आदियुग से ही साथ-साथ चलने की बात नहीं कही जाती। 3. अवतारवाद का प्रभाव- जैन परम्परा में अवतारवाद का खण्डन हुआ है। ईश्वरवाद में ईश्वर सृष्टिकर्ता, पालनकर्ता तथा संहारकर्ता होता है। विश्व में जो कुछ होता है वही उसका कर्ता होता है। यदि यह मान लिया जाता है कि ऋषभदेव से पूर्व कोई संस्कृति नहीं थी, उन्होंने ही सब तरह की शिक्षाएं दी और सारी व्यवस्था की तो उसे अवतारी चमत्कार के सिवा कुछ और नहीं कहा जा सकता है जो जैन चिन्तन के विरोध में होगा। 4. मानववाद का विरोध- जैन परम्परा मानववाद की समर्थक है। यह मानवी शक्ति में विश्वास करता है। मानवीशक्ति के माध्यम से जो कुछ होता है वह धीरे-धीरे होता है, विकास क्रम में होता है। इसमें ऐसा नहीं होता कि एक ही व्यक्ति सबकुछ कर डाले। किन्तु ऋषभदेव को तो सर्वकर्ता के रूप में प्रस्तुत किया गया है। यह तर्कसंगत ज्ञात नहीं होता है। 5. अनेकान्तवाद का विरोध- जैन चिन्तन में अनेकान्तवाद का प्रतिपादन हुआ है जिसके अनुसार एक तत्व नहीं बल्कि अनेक तत्वों को अपेक्षाकृत महत्व दिया गया है। किन्तु ऋषभदेव को ईश्वरवाद के ईश्वर की तरह सर्वकर्ता के रूप में प्रस्तुत करके एक तत्व को महत्व देने से अनेकान्तवाद का विरोध होता है। 6. स्वविरोध- जब एक ओर यह कहा जाता है कि ऋषभदेव राजकुमार थे और दूसरी ओर यह कहा जाता है कि उनसे सभ्यता और संस्कृति शुरू होती है तो यहाँ वद्तोव्याघात की स्थिति उत्पन्न हो जाती है क्योंकि ऋषभदेव यदि राजकुमार थे, उनके माता-पिता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012064
Book TitlePrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan Vaishali Swarna Jayanti Gaurav Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhchand Jain
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan Vaishali
Publication Year2010
Total Pages520
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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