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स्वर्ण जयन्ती गौरव-ग्रन्थ
उनके साधु क्षत्रिय तथा ब्राह्मण थे 37 | व्रात्यकाण्ड में व्रात्य संज्ञा उनके लिए उपयुक्त कही गई है जो पूर्ण ब्रह्मचारी है । इन्हीं अर्थों में व्रात्य परम्परा को श्रमण परम्परा कहा गया है और ऋषभदेव को व्रात्य कहा गया है। व्रात्य जैन संत थे और व्रत जैनाचार की ही चीज है इसका समर्थन दिनकरजी के शब्दों में मिलता है
"हिन्दुत्व और जैनधर्म आपस में घुल-मिल कर इतने एकाकार हो गये हैं कि आज का साधारण हिन्दू यह जानता भी नहीं कि अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह- ये जैनधर्म के उपदेश थे, हिन्दुत्व के नहीं ' ' 39 |
वैदिक साहित्य में व्रात्य के दो अर्थ किए गए हैं। एक अर्थ में व्रात्य को भ्रष्ट तथा आचारहीन कहा गया है किन्तु दूसरे अर्थ में उन्हें विद्वान एवं पुण्यशील कहा गया है। मनुस्मृति में कहा गया है कि ब्राह्मण की वह सन्तान जो उपनयन रहित है गुरुमंत्र से हीन है वह व्रात्य है । ताण्डय महाब्राह्मण के भाष्य में सायण ने भी व्रात्यों को आचारहीन घोषित किया है" । सम्भवतः इन्हीं निन्दनीय अर्थों से प्रभावित होकर आचार्य हेमचन्द्र ने भी अभिधानचिन्तामणि कोष में व्रात्यों को आचार तथा संस्कार से हीन माना है 2 |
किन्तु अथर्ववेद में व्रात्यों के लिए विद्वत्तम, महाधिकारी, पुण्यशील आदि विशेषण बताए गए हैं।
वातरशना मुनि
मुनि के लिए एक अन्य शब्द 'वातरशन' भी देखा जाता है। 'मैकडोनेल और कीथ इसका 'वातमेखला' से यन्द अर्थात् नग्न अर्थ करते हैं । इसका दूसरा अर्थ है - प्राणवायु का नियमन करने वाले" । ऋग्वेद में वातरशना मुनि की चर्चा पाई जाती है। उससे ज्ञात होता है कि वातरशना मुनि अतीन्द्रियार्थदर्शी होते हैं और मलधारण करते हैं। मल के कारण उनका शरीर पिंगलवर्ण का दिखाई पड़ता है। वे प्राणोपासना करते हैं। जब वे प्राणोपासना के समय वायु की गति को रोक देते हैं तो अपने तप के प्रकाश से प्रकाशित होकर देवता के समान हो जाते हैं। वे लौकिक व्यवहारों से ऊपर उठकर मौनेय की अनुभूति करते हैं। वे वायु में स्थित होकर कहते हैं- हे मर्त्यो! तुम सिर्फ हमारा शरीर देखते हो" । वातरशना मुनि श्रमण परम्परा के थे। श्रीमद्भागवत पुराण के आधार पर यह जैन मान्यता है कि वातरशना परम्परा को विकसित करने के लिए भगवान विष्णु ने ऋषभदेव के रूप में अवतार लिया था । वातरशना मुनि के विषय में देवेन्द्र मुनि शास्त्री ने लिखा है'वातरशना मुनि वैदिक परम्परा के नहीं थे। क्योंकि वैदिक परम्परा में संन्यास और मुनि पद को पहले स्थान नहीं था । श्रमण शब्द का उल्लेख तैत्तरीयारण्यक और श्रीमद्भागवत के साथ ही बृहदारण्यक उपनिषद् और रामायण में भी मिलता है। इण्डोग्रीक और इण्डो- सीथियन के समय भी जैन धर्म श्रमण धर्म के नाम से प्रचलित था। मेगास्थनीज ने अपनी भारत यात्रा के समय दो प्रकार के मुख्य दार्शनिकों का उल्लेख किया है। श्रमण और ब्राह्मण उस युग के मुख्य दार्शनिक थे। उस समय उन श्रमणों का बहुत आदर होता था" ।
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