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________________ जैन संस्कृति 317 परिव्राजक आदि थे जिनकी अपनी विशेषताएं थी। डॉ. पाठक का यह विचार सामान्यतः पाए जाने वाले मतों से भिन्न है। 'मुनि' शब्द प्रायः श्रमण तथा वैदिक परम्पराओं में मान्य है। 'परिव्राजक' बौद्ध परम्परा में व्यवहत होता है। 'व्रात्य' तथा 'यति' शब्दों को जैन विद्वान जैन परम्परा का मानते हैं। किन्तु डॉ. पाठक ने लिखा है "मनि प्राग्वेदीय आर्य शब्द और जीवन पद्धति है। यति भी प्राग्वेदीय थे उनका उत्स भारतेरानी काल तक जाता है। पालि-प्राकृत साहित्य के खत्तिय ऋग्वेदीय वर्ण व्यवस्था के क्षत्रिय के समकक्ष नहीं थे किन्त प्राचीन क्षम-क्षग्र-क्षायथ्य परम्परा की परिणति थे। समण-ब्राह्मण युग्म में प्रयुक्त ब्राह्मण भी ब्राह्मण वर्ण से भिन्न था1321 यदि सह-अस्तित्ववादी सिद्धान्त के अनुसार, यह मान लिया जाता है कि आदिकाल से श्रमण और वैदिक परम्पराएं स्वतंत्र रूप से साथ-साथ चली आ रही हैं तो हमें यह भी मानना होगा कि परिस्थितिवश इन दोनों के बीच मात्र विरोध ही नहीं बल्कि वैचारिक एवं व्यावहारिक आदान-प्रदान तथा आपसी सहयोग का भी होना स्वाभाविक है। इस तथ्य को समझने के लिए इन दोनों से सम्बंधित उन पारिभाषिक शब्दों को विश्लेषित करना भी आवश्यक है जो अपने आपमें महत्वपूर्ण हैंमुनि- मुनि शब्द के दो अर्थ बताए गए है (क) मौन व्रत धारी (अमरकोष 242) (ख) अतीन्द्रियार्थदर्शी (ऋ. 10.136.2. पर सायण) जैन परम्परा में साध लोगों को मनि कहकर सम्बोधित किया जाता है। वैदिक परम्परा में भी ऋषि, मुनि शब्द बहुत ही प्रचलित हैं। किन्तु इनमें से कोई भी परम्परा यदि यह दावा करती है कि मुनि शब्द मात्र उसी का है तो ऐसा मानना सही नहीं है। साधना के लिए मौन धारण करना, मौन व्रत का पालन करना तो आवश्यक माना जाता है। अतः किसी परम्परा का साधु या साधक ऐसा कर सकता है। यद्यपि जैन परम्परा साधना प्रधान है किन्तु यह तो नहीं कहा जा सकता कि वैदिक परम्परा में साधना का बिल्कुल अभाव 'अतीन्द्रियार्थदर्शी अर्थात् ज्ञानी यह अर्थ भी बताता है कि मुनि दोनों ही परम्परा में हो सकते हैं। ज्ञानी तो किसी भी परम्परा में होते हैं। ऐसी कौन सी परम्परा है कि जिसमें मात्र अज्ञानी ही होते हैं। अज्ञान समाप्त हो जाए और ज्ञान की प्राप्ति हो इसीलिए तो साधक साधना करता है। अतः तर्क संगत तो यही है कि मुनि शब्द जैन तथा वैदिक परम्परा दोनों का ही है। व्रात्य- व्रात्य शब्द 'व्रत' से बना है। डॉक्टर हेवर के अनुसार व्रात्य वह है जो व्रतों के लिए दीक्षित हो चुका है। व्रात्य वह है जिसने आत्मानुशासन के उद्देश्य से इच्छा पूर्वक व्रत को अपना लिया है। देवेन्द्र मुनि शास्त्री ने व्रत का मूल अर्थ बताते हुए कहा है कि यह एक धार्मिक संकल्प है। अतः इस संकल्प में जो साधु है, कुशल है वह व्रात्य है। डॉ. ग्रीफिथ के विचार में व्रात्य धार्मिक पुरुष माने गए हैं। मैक्डोलन तथा कीथ के मत में व्रात्य व्रतों का पालन करते थे, वे अर्हन्तों के उपासक थे तथा प्राकृत उनकी भाषा थी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012064
Book TitlePrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan Vaishali Swarna Jayanti Gaurav Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhchand Jain
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan Vaishali
Publication Year2010
Total Pages520
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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