________________
316
स्वर्ण जयन्ती गौरव-ग्रन्थ
प्रतिक्रियावाद तथा सुधारवाद में कुछ भिन्नताएं देखी जा सकती हैं प्रतिक्रियावाद तथा सुधारवाद दोनों में ही विरोध की बातें होती हैं किन्तु जिस स्तर पर विरोध प्रतिक्रियावाद में देखा जाता है उसी स्तर पर विरोध सुधारवाद में नहीं होता है। सुधारवाद के विरोध में भी एक सहानुभूति सन्निहित होती है। सुधारवाद में अलगाव नहीं होता जो प्रतिक्रियावाद में होता है। इसीलिए जैन तथा बौद्ध धर्मों के लिए सुधारवादी हिन्दू धर्म नाम आया है 2 |
44
(5) सह-अस्तित्ववादी सिद्धान्त- (The Theory of Co-Existence) आज के इतिहासकार यह मानने के लिए तैयार नहीं है कि आर्य लोग भारतवर्ष में मध्य एशिया से आए और यहाँ के रहने वालों को पराजित करके अपनी परम्परा स्थापित की तथा यहाँ के मूल वासियों को अनार्य संज्ञा से सम्बोधित किया। अतः आर्य-अनार्य के आधार पर पहले से मान्य किसी सिद्धान्त को ये नहीं मानते। आज का इतिहास मानता है कि यहाँ पर आदि काल से ही दो धाराएं प्रवाहित हो रही हैं। डॉ. वी. एस. पाठक के शब्दों में" आदिम आर्यों में संचरण-शील युग से ही दो भिन्न परम्परायें विकसित हुईएक चरण की और दूसरी श्रमण की। वैदिक चरण के समान ही श्रमण था । यदि चरण संचरणशीलता का अभिधान है तो श्रमण भी (क्रम < श्रम = पाद प्रक्षेप) । देवेन्द्र मुनि ने भी इसका समर्थन किया है कि श्रमण साधु सदा भ्रमण करते रहते हैं लिखा हैश्रमण संस्कृति सन्त आदिकाल से ही घुमक्कड़ रहा है। घूमना उसके जीवन की प्रधान के चर्या रही है। वह पूर्व (अथर्ववेद 15 / 1 / 2 / 1 ), पश्चिम (अथर्ववेद 15 / 1 / 2/15), उत्तर (अथर्ववेद) और दक्षिण आदि सभी दिशाओं में अप्रतिबद्ध रूप में विहार करता है। आगम साहित्य में अनेक स्थलों पर उसे अप्रतिबद्ध विहारी कहा गया है। वर्षावास के समय को छोड़कर शेष आठ माह तक वह एक ग्राम से दूसरे ग्राम, एक नगर से दूसरे नगर विचरता रहता है। भ्रमण करना उसके लिए प्रशस्त माना गया है। यहाँ समझने की बात यह है कि आदिम आर्य कौन थे? अथवा प्राक् ऋग्वेदीय आर्य कौन थे? आदिम आर्य कहीं से आए नहीं बल्कि भारतवर्ष में ही थे और इनका क्षेत्र बहुत विस्तृत था। ये भारतवर्ष से बाहर भी कई देशों में बसे थे। यह 'आर्य' शब्द भारत्योरोपीय (Indo-European ) शब्द भण्डार का शब्द है। इसे वैदिक परम्परा की सीमा में बांधा नहीं नहीं जा सकता है बल्कि इसे वैदिक संस्कृति से भिन्न मानना ही श्रेयस्कर है। अतः आर्य-अनार्य मान्यता से भिन्न डॉ. पाठक ने श्रमण का इतिहास बताया है। उन्होंने लिखा है
" विविध साक्ष्यों के आधार पर श्रमण संस्कृति की प्राचीनता ईसा पूर्व प्रथम सहस्राब्दि के करीब स्थिर की और उसके विकास के विभिन्न स्तरों का उपन्यास किया। आजीवक, जैन और बौद्ध धर्म इसी पुरातन श्रमण संस्कृति का षष्ठ शती में अभिव्यक्त उत्थान है | |
पुनः डॉ. पाठक ने ऋग्वेदीय युग के पहले की स्थिति पर प्रकाश डालते हुए कहा है कि इस युग से पहले यानी आदि युग में भारतवर्ष में आर्य संस्कृति थी जिसके अन्तर्गत अनेक उपसंस्कृतियां थी। श्रमण तो थे ही उनके अतिरिक्त मुनि, यति, व्रात्य,
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org