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________________ जैन संस्कृति 315 परम्परा को ऋषभदेव से भी पहले का मानते हैं तब यह भी मानना होगा कि प्रतिक्रिया ऋषभदेव से पहले हुई और जैन संस्कृति का श्रीगणेश हुआ। यह सिद्धान्त वैदिक चिन्तन के विरोध में था जबकि उत्तर-पश्चिम में वैदिक विचार तथा इसके बीच सन्धि का रूप था। जैन तथा बौद्ध साहित्य में इसका पहला रूप मिलता है तथा गीता आदि वैदिक साहित्य इसका दूसरा रूप दिखाई पड़ता है। रागड़े तथा बेलवलकर के अनुसार उपनिषदों में उन धर्म विरोधी चिन्तकों के होने के प्रमाण मिलते हैं जो वैदिक परम्परा के विरोधी थे। मैं (डॉ. पाण्डेय) ने स्वयं माना है कि वैदिक परम्परा में यति और मुनि के सन्दर्भो को देखते हुए धर्म विरोधिता को और पहले भी देखा जा सकता है। मैंने यह भी तर्क किया है कि धर्म विरोधिता कर्म तथा पुनर्जन्म सिद्धान्तों के साथ ही सन्यासवाद तथा योग में भी मिलती है। इस रूप में यह धर्म विरोधी धारा (श्रमण धारा) को सिन्धु सभ्यता में पायी जा सकती है। किन्तु यह तबतक मात्र एक सम्भावना है जबतक कि सिन्धु लिपि को जान नहीं लिया जाता है। डॉ. मोहनलाल मेहता ने अपनी रचना जैन संस्कृति (Jaina Culture) में सुदृढ़ता के साथ यह प्रतिपादित किया है कि जैन संस्कृति का स्रोत सिन्धु सभ्यता में पाया जाता है। उन्होंने लिखा है कि सिन्धु सभ्यता वैदिक युग की आर्य संस्कृति से बिल्कुल भिन्न है। सिन्धु तथा वैदिक संस्कृतियों की तुलना से यह ज्ञात होता है कि दोनों असम्बंधित थे। वैदिक धर्म प्रतिमावादी नहीं है जब मोहनजोड़रो तथा हड़प्पा में प्रत्येक जगह प्रतिमावाद के संकेत मिलते हैं। मोहनजोदारो के घरों में प्रायः अग्निवेद का अभाव पाया जाता है। मोहनजोदारो में अनेक नग्न चित्र पाए गए हैं जिनके व्यक्तित्व से ऐसा लगता है कि वे योगिओं के सिवा और किसी के चित्र नहीं है। प्रतिमावाद तथा नग्नता जैन संस्कृति के मुख्य दो लक्षण हैं। मोहनजोदारो में प्राप्त नग्न चित्र स्पष्टतः संकेत करते हैं कि सिन्धु सभ्यता के लोग सिर्फ योग-साधना ही नहीं करते थे बल्कि योगियों की पूजा भी करते थे। सिन्धु सिक्कों पर खुदे हुए देव-चित्रों में से खड़े देवचित्र से कायोत्सर्ग आसन का बोध होता है। यह योगासन या साधना विलक्षणत: जैनासन है। अर्थात् जैन संस्कृति का स्रोत सिन्धु सभ्यता में प्रमाणित होता है। (4) सुधारवादी सिद्धान्त- (The Reformation Theory) श्रमण संस्कृति के विषय में एक सुधारवादी सिद्धान्त प्रतिपादित हुआ है जो यह मानता है कि जैन तथा बौद्ध धर्मों को वैदिक धर्म अथवा हिन्दूधर्म के दोर्षों को दूर करके उसमें सुधार लाने वाला प्रतिपादित किया गया है। इस सम्बन्ध में "नगेन्द्र नाथ घोष ने लिखा है कि छठी शताब्दी पूर्व दो धार्मिक आन्दोलनों के लिए प्रसिद्ध है। इसमें जैनधर्म तथा बौद्धधर्म हिन्दू धर्म के सुधारक के रूप में उत्पन्न हुए, लुथर और कालविन की तरह महावीर और गौतम बुद्ध ने हिन्दू धर्म में प्रचलित बुराइयों के विरोध में आवाज बुलन्द की। अतः जैन धर्म तथ बौद्ध धर्म उसी प्रकार विरोधी अथवा सुधारवादी हिन्दू धर्म (Protestant Hinduism) कहे जा सकते हैं जिस प्रकार सुधारवादी लुथरवादी (Lutherianism) तथा कालविनवाद (Calvinism) को विरोधी ईसाई धर्म (Pertestant Christianity) कहते हैं28। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012064
Book TitlePrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan Vaishali Swarna Jayanti Gaurav Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhchand Jain
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan Vaishali
Publication Year2010
Total Pages520
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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