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________________ जैन संस्कृति सिन्धु घाटी की संस्कृति एवं सभ्यता- 'भारत की इस प्राचीनतम सभ्यता का ज्ञान सर्व प्रथम सन् 1922 ई. में खनन कार्य के परिणामस्वरूप प्राप्त हुआ। जमीन के भीतर से इस सभ्यता के अवशेषों को खोद निकालने का श्रेय डॉ. राखालदास बनर्जी तथा राय बहादुर श्री दयाराम साहनी को है। सिन्ध में कुछ बौद्ध अवशेषों की खुदाई के दौरान डॉ. बनर्जी को चित्रलिपि में कुछ मुहरों पर उत्कीर्ण लेख मिले, जिनके कारण हड़प्पा और मोहनजोड़ो में बहुत बड़े पैमाने पर खुदाई की गई, इसके फलस्वरूप सिन्धु घाटी सभ्यता का ज्ञान हुआ 24 | 44 313 सैंधव सभ्यता अथवा सिन्धु घाटी सभ्यता से सम्बंधित प्राप्त सामानों से अनुमान लगाया जाता है कि उसका प्रारम्भ ईसा से 5 हजार वर्ष पहले तथा विनाश ईसा से 2750 वर्ष पहले हुआ होगा। डॉ. राजबली पाण्डेय ने सिन्धु घाटी सभ्यता का समय ई. पूर्व 4000 वर्ष माना है। डॉ. राधा कुमुद मुखर्जी के अनुसार उस सभ्यता का काल ई. पूर्व 3250 वर्ष से ई. पू. 2750 वर्ष हो सकता है। Jain Education International शिव पूजा सिन्धु घाटी में होती थी, उसके प्रमाण वहाँ के भग्नावशेषों से प्राप्त हुए हैं। एक मुद्रा पर अंकित चित्र को देखने से ऐसा लगता है कि जिस रूप में आज शिव की पूजा होती है करीब-करीब वही रूप सिन्धु घाटी सभ्यता के लोगों के द्वारा भी पूजित था। प्राप्त चित्र में एक योगी योगासन लगाए बैठा है, उसके आस-पास पशु हैं, जो इस प्रकार हैं- दाहिनी ओर हाथी और सिंह, बाईं ओर गैंडा और भैंसा एवं सामने एक हिरण है । उस योगी के सिर पर कुछ लिखा भी है जो अस्पष्ट है। उसके अतिरिक्त एक योगी को सर्पों के साथ दिखाया गया है। ब्राह्मण मत के अनुसार ये सभी शिव उपासना की पुष्टि करते हैं, किन्तु श्रमण मत में वे मात्र योगियों के चित्र हैं। जैन मतावलम्बिओं के अनुसार चूंकि वैदिक परम्परा यज्ञ प्रधान है तथा जैन संस्कृति योग प्रधान है। इसलिए जैन संस्कृति का सम्बन्ध ही उन चित्रों से बनता है और इस तरह जैन संस्कृति तथा सिन्धु घाटी सभ्यता में निकटता का सम्बन्ध है। यद्यपि शिव की पूजा वैदिक संस्कृति में होती है परन्तु शिव की अधिक बातें श्रमण परम्परा से मिलती है जैसे (1) साधनामय जीवन- शिव का जीवन साधनामय देखा जाता है। वे सदा कैलाश की हिमाच्छादित चोटी पर साधनारत रहते हैं। उनके शरीर पर पूरा वस्त्र भी नहीं होता है। मृगछाल धारण करने के बावजूद भी वे अर्धनग्नावस्था में रहते हैं। उनका खान-पान भी विचित्र है। वे भांग, धतूर आदि ग्रहण करते हैं। शिव को कभी किसी ने मेवा-मिष्टान खाते हुए तथा सुरापान करते हुए देखा नहीं और न ऐसी कोई चर्चा ही मिलती है। वे भूत, पिशाच आदि के साथ रहते हैं, इसलिए विद्वानों ने उन्हें अनार्यों का देवता भी कहा है। क्योंकि आर्यों की दृष्टि में शिव उस तरह नहीं पाए जाते हैं, जिस तरह वैदिक देवता होते हैं। वैदिक देवता स्वर्ग में रहते हैं, उनका जीवन स्वर्गिक सुख से ओत-प्रोत रहता है। वे सुरापान करते हैं तथा विभिन्न प्रकार के वस्त्र तथा आभूषण धारण करते हैं। देवों के अधिपति इन्द्र को हमेशा यह चिन्ता बनी रहती है कि कहीं उनसे स्वर्ग का सुख न छिन जाए। इस प्रकार For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012064
Book TitlePrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan Vaishali Swarna Jayanti Gaurav Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhchand Jain
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan Vaishali
Publication Year2010
Total Pages520
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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