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________________ 310 स्वर्ण-जयन्ती गौरव-ग्रन्थ समुचित जीवन की कल्पना तक नहीं की जा सकती है। 10. शान्तिवादी वैश्विकदृष्टि से जैन संस्कृति शान्तिवादी है। आज का विश्व उग्रवाद और आतंकवाद के कारण अशान्त है। सब जगह हिंसा ही हिंसा व्याप्त है। कहीं धार्मिक मदान्धता से लोग त्रस्त हैं तो कहीं पर आर्थिक विषमता ने हलचल मचा रखा है। विकसित राष्ट्र ध्वंसकारी, प्रलयंकारी अस्त्र-शस्त्र बनाने और बेचने में व्यस्त हैं और विकासशील राष्ट्र आपसी द्वेष के कारण अपनी-अपनी सुरक्षा तथा दूसरों पर आक्रमण करने की दृष्टि से अपनी सारी आर्थिक क्षमता को विभिन्न अस्त्र-शस्त्रों को खरीदने में लगा रहे हैं। मानव जीवन की सुख-सुविधाएं अवहेलित हैं। लड़ो और मरो सिद्धांत प्रभावी है। विश्व अशान्त है। विज्ञान जितना ही आगे बढ़ता जा रहा है मानव जीवन उतना ही खतरों से लिपटता जा रहा है। ऐसी स्थिति में जैन संस्कृति या जैन संस्कृति के शान्ति वाहक विविध सदोपदेश ही प्रासंगिक हैं, जो विश्व को शान्ति प्रदान कर सकते हैं। 11. पर्यावरणवादी जीव-जीवन सुरक्षा की दृष्टि से जैन संस्कृति पर्यावरणवादी है। आज तक मानव अपने को सभ्य बनाने की दृष्टि से अन्य जीव जन्तुओं, वनस्पति एवं वनों से अपने को दूर रखने में गर्व का अनुभव करता रहा है। किन्तु वैज्ञानिक खोजों तथा प्राकृतिक सम्पदाओं के विनष्ट हो जाने के बाद वह स्वयं अपने को मौत की ओर बढ़ता हुआ पा रहा है तो उसे अपनी सुरक्षा की बात सामने आ रही है। वह समझ रहा है कि जिन्हें वह अनुपयोगी समझकर नष्ट करता जा रहा है वे ही उसकी जीवनीशक्ति के सम्बर्द्धक हैं। विज्ञान से तो उसने यह जान लिया कि उसके जीवित रहने के लिए ऑक्सिजन आवश्यक है किन्तु आक्सिजन ईंट-पत्थर से तो प्राप्त नहीं हो सकता, कल कारखानों में तो ऑक्सिजन पैदा नहीं किया जा सकता है। वह तो पेड़-पौधों से ही मिलता है। अतः पेड़-पौधों को नष्ट करके मानव स्वयं अपने को नष्ट कर रहा है। ऐसी स्थिति में पर्यावरण की सुरक्षा करके ही मानव अपने को सुरक्षित रख सकता है। पर्यावरण की सुरक्षा पर प्राचीन काल से जैन संस्कृति में विचार होता आ रहा है। जैन संस्कृति में वनस्पतिओं को भी एकेन्द्रिय जीव माना जाता है और उनकी जीवन-रक्षा का यथासम्भव प्रयास किया जाता है। अतएव जैन संस्कृति को पर्यावरणवादी मानना उचित ही है। जैन संस्कृति का उद्भव एवं विकास किसी भी संस्कति या समाज की उत्पत्ति को बताने का मतबल होता है उसके इतिहास का विवेचन करना। किन्तु इतिहास प्राप्त साक्ष्यों के आधार पर किये गये अनुमान के सिवाय कुछ और नहीं होता है। खोजों के आधार पर नए साक्ष्य आते रहते हैं जिससे पुराने साक्ष्य कभी-कभी महत्वहीन हो जाते हैं और नए अनुमान को प्रतिष्ठा प्राप्त हो जाती है। इस प्रकार इतिहास बदलना रहता है और निश्चितता का अभाव परिलक्षित होता है। श्रमण संस्कृति या जैन संस्कृति के विषय में भी कुछ ऐसी ही बात सामने आती है। इसकी उत्पत्ति के विषय में भी कोई एक मत नहीं बल्कि कई मत दिखाई पड़ते हैं, जिससे यह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012064
Book TitlePrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan Vaishali Swarna Jayanti Gaurav Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhchand Jain
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan Vaishali
Publication Year2010
Total Pages520
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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