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जैन संस्कृति
6. समानतावादी
सामाजिक दृष्टि से जैन संस्कृति समानतावादी है। क्योंकि इसमें मानव समाज के बीच किसी प्रकार का स्तरीकरण नहीं पाया जाता है। वैदिक परम्परा में समाज को चार वर्गों में विभाजित किया गया है- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र । इनमें ब्राह्मण सर्वश्रेष्ठ तथा शूद्र सर्वनिकृष्ट माने जाते हैं। ऐसी बात जैन समाज में नहीं है। जो जैसा कर्म करता है, वह वैसा समझा जाता है। सुकर्म करने वाला श्रेष्ठ होता है तथा कुकर्म करने वाला निकृष्ट होता है।
7. अपरिग्रहवादी
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आर्थिक दृष्टि से जैन संस्कृति अपरिग्रहवादी है। अपिरग्रह जैन मत के पंच महाव्रतों में से एक है, जो यह सिखाता है कि व्यक्ति को उतना ही संग्रह करना चाहिए जो जीवन यापन के लिए अनिवार्य हो । अनिवार्यता से अधिक संग्रह करने वाला चोरी करता है, बेईमानी करता है, जो दूसरों के लिए दुःखदायी होता है। दूसरों को कष्ट पहुँचना हिंसा है | अतः जैनसंस्कृति में यह माना गया है अपरिग्रह का पालन ही आर्थिक व्यवस्था के लिए समुचित मार्ग है। अपरिग्रह से मात्र आर्थिक व्यवस्था ही कल्याणकारी नहीं बनती है बल्कि अहिंसा का भी पालन होता है। अपरिग्रह के बिना किसी भी हालत में अहिंसा का पालन सम्भव नहीं है।
8. समाजवादी
राजनीतिक दृष्टि से विचार करने पर जैन संस्कृति को समाजवाद के क्षेत्र में रख सकते हैं। यद्यपि जितने भी जैन तीर्थंकर हो गए हैं सबके सब क्षत्रिय थे और राजकुमार भी, जो राजतंत्र की ओर संकेत करता है, किन्तु जन्म से वे लोग भले ही राजकुमार थे, कर्म से त्यागी, तपस्वी और समाज उद्धारक थे। उनलोगों ने राज सुख का त्याग करके समाज कल्याण को अपने जीवन का परम उद्देश्य बनाया। उनलोगों ने प्राणीमात्र में समानता लाने का प्रयास किया। अतः कहा जा सकता है कि जैन संस्कृति की समाजवादी उदारता में मात्र मानव ही नहीं बल्कि अन्य सभी प्राणी भी आ जाते हैं। समानता का भाव जो समाजवाद का आधार माना जाता है, को जो सुदृढ़ता जैन चिन्तन में प्राप्त है, वह अन्यत्र नहीं है। खास तौर से मानवीय समाजवाद की रीढ़ अहिंसा तो भगवान महावीर तथा भगवान बुद्ध की ही देन है। अहिंसा को अपनाकर ही आचार्य नरेन्द्र देव ने आदर्शवादी समाजवाद से मानवीय समाजवाद को पृथक् स्थान दिलाया है।
9. अहिंसावादी
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आचार की दृष्टि से जैन संस्कृति अहिंसावादी है। अहिंसा की विवेचना जिस सूक्ष्मता के साथ जैन आचार्यों ने की है उस तरह अन्य परम्पराओं में दुर्लभ है। इसमें सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह को अहिंसा के पोषक तत्वों के रूप में ही स्वीकारा गया है। इसमें यह माना गया है कि अहिंसा के बिना न तो किसी विचार में शुद्धि आती है और न कोई आचार ही सदाचार की श्रेणी में आता है। अहिंसा जीवनी शक्ति है। इससे मानव जीवन को ही नहीं बल्कि समस्त जीवनी प्रक्रिया को बल मिलता है। अहिंसा के बिना
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