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जैन संस्कृति
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(छ) उसकी वृत्ति मधुकर वाली होती है। (ज) समण में हरिण की सरलता होती है। (झ) भूमि जिस तरह सबको क्षमा प्रदान करने वाली होती है, उसी तरह समण क्षमाशील
होता है। (ब) कमल की तरह समण निर्लेप होता है। पानी में रहकर भी कमल उससे प्रभावित
नहीं होता है उसी तरह संसार में रहते हुए भी समण मोह-ममता के वशीभूत नहीं
होता है। (ट) समण में सूर्य की तरह तेज होता है। (ठ) वह अबाधगति से विचरण करता है जिस तरह हवा अप्रतिहत रूप में विहार करती है। श्रमण शब्द का एक नया अर्थ
प्रो. विश्वम्भर शरण पाठक के अनुसार "ग्रीक" 'टेलोस' (Telos) तथा वैदिक 'चरण' की तरह श्रमण परम्परा एक भ्रमणकारी परम्परा थी। भारतीय विश्वकोश के आधार पर 'श्रमण' शब्द का विवेचन उन्होंने इस प्रकार किया हैक्लेम-क्रम-श्रम-पाद-प्रक्षेप। श्रमण-भ्रमण करने वाले थे। शतपथ ब्राह्मण में ऐसे बहुत से उल्लेख मिलते हैं जिनमें श्रम और चर मौलिक रूप में सम्बंधित ज्ञात होते हैं जैसे
श्राम्यन्तश्चेरुह (1.2.5.7) ऐतरेय ब्राह्मण 8.15 में निम्नलिखित पंक्तियां मिलती हैं
अस्य सर्वे पाप्मानह।
श्रमेण प्रपथे हताह। उसके सभी पाप पथ पर भ्रमण करने से समाप्त हो गए"।
श्रमण शब्द का भ्रमणकारी अर्थ लगाना एक नयी बात अवश्य है परन्तु इसकी यथार्थता इससे भी प्रमाणित होती है कि आज भी श्रमण परम्परा में विहार या भ्रमण को महत्व प्राप्त है। जैन साधु साध्वी के लिए सिर्फ वर्षाकाल के चार माहों (अषाढ़ माह की पूर्णिमा से कार्तिक माह की पूर्णिमा तक) में एक स्थान पर स्थिर रहने का विधान किया गया है। वर्ष के अन्य आठ माहों में उन्हें विहार ही करना चाहिए। भगवान बुद्ध के विषय में कहा जाता है कि जब उनके शिष्यों की संख्या 60 तक पहुंच गई तब उन्होंने उन लोगों को सम्बोधित करते हुए कहा
"चरथ भिक्खवे चारि के बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय, लोकानुकम्पाय" अर्थात् हे भिक्षुओं! विचरण करो, बहुजन के हित के लिए, बहुजन के सुख के लिए, लोक पर अनुकम्पा करने के लिए।
सम्भवतः बिहार राज्य. जो श्रमण परम्परा का उद्गम स्थान है, का 'विहार' नामकरण इसीलिए हआ होगा कि वहां पर जैनमुनि तथा बौद्ध भिक्षु सब जगह विचरण करते हुए दिखाई पड़ते रहे होंगे।
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