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________________ 306 स्वर्ण-जयन्ती गौरव-ग्रन्थ जल के बीच बैठने की व्यवस्था करके जाड़ा के दिन में साधना करता है जबकि सामान्य लोग ठंड से ठिठुरते रहते हैं। इसी प्रकार 'अग्नि झप' की स्थिति में वैसाख, जेठ की चिलचिलाती धूप में अपने चारों तरफ आग जलाकर बीच में योगी साधना करता है। यह भी कितना कठिन है। इस तरह आध्यात्मिक साधना सामान्य शारीरिक साधना से ज्यादा मश्किल होती है जैन परम्परा में दिगम्बर साध जाडा, गर्मी हमेशा ही बिना वस्त्र के रहते हैं। ये जो साधकों के द्वारा श्रम किए जाते हैं वे ही श्रम करने वाले श्रमण होते हैं। यदि हम शमण, समण तथा श्रमण तीनों के ही अर्थों को एक साथ कर दें तो भी कोई विरोध नहीं होता है। अर्थात् ऐसा भी हम कह सकते हैं- "जो इन्द्रियों को वश में कर लेता है, समता में विश्वास करता है तथा साधना रूपी श्रम करता है वह श्रमण उपर्यक्त अर्थों को देखते हए ही श्रमण या समण को दशवैकालिक-निर्यक्ति में निम्न प्रकारेण परिभाषित किया गया है- जो यह समझता है कि जिस प्रकार उसे कष्ट होता है और वह कष्ट भोगना नहीं चाहता है उसी तरह अन्य सभी जीवों को भी दु:ख प्रिय नहीं होता है और ऐसा विचार करके वह किसी प्राणी का हनन न तो स्वयं करता है और न किसी दूसरे से ही हनन करवाता है वही समण होता है। उसकी समता-धारणा ही उसे समण बनाती है। जो व्यक्ति न किसी से राग करता है और न ही किसी के प्रति अपने मन में द्वेष पालता है, बल्कि अपने मन में सदा समता के भाव को संजोए हुए रहता है, वहीं समण होता है। समण वह होता है जो पुरस्कार स्वरूप फूल को पाने के बाद प्रसन्न नहीं होता है और न अपमान रूपी हलाहल के सामने आने पर दु:खी होता है। अर्थात् जो मान-अपमान से किसी भी प्रकार प्रभावित नहीं होता है और समता की स्थिति में अपने को सुदृढ़ रखता है। उत्तराध्ययन सूत्र में कहा गया है कि मात्र सिर मुड़ा लेने से ही कोई समण नहीं हो जाता है- ज्ञान से कोई व्यक्ति मुनि होता है और तप करने से तपस्वी होता है। समण मता का नाम है। समता के अतिरिक्त समण की अन्य विशेषताएं कौन-कौन सी होती हैं उन्हें दशवैकालिक नियुक्ति में ही स्पष्टतः प्रस्तुत किया गया है। (क) समण के जीवन में मृदुता उस तरह समावेशित होती है जिस तरह सांप के शरीर में कोमलता वास करती है। (ख) उसके जीवन में पहाड़ की स्थिरता की तरह स्थिरता होती है। (ग) अग्नि के समान समण का जीवन प्रज्ज्वलित होता है, प्रकाशित होता है। (घ) समुद्र में जिस तरह गम्भीरता होती है ठीक उसी तरह समण का जीवन गम्भीरतामय होता है। (ड) समण में आकाश के समान विशालता होती है। (च) वृक्ष दूसरों को आश्रय देता है, उसी तरह समण भी आश्रयदाता होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012064
Book TitlePrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan Vaishali Swarna Jayanti Gaurav Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhchand Jain
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan Vaishali
Publication Year2010
Total Pages520
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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