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________________ जैन संस्कृति में क्षत्रियों की प्रधानता होने से इसे क्षत्रिय परम्परा कह सकते हैं। साथ ही यदि वैदिक परम्परा को आर्य परम्परा कहते हैं तो वैदिक परम्परा से पृथक् होने के कारण इसे अनार्य परम्परा कहना भी गलत नहीं होगा। श्रमण परम्परा योगवादी तथा अनीश्वरवादी है। 305 श्रमण परम्परा की भी मुख्यतः दो शाखाएं हैं (क) जैन परम्परा- 'जिन' के अनुयायी को जैन कहते हैं। 'जिन' का अर्थ होता है 'जयी'। जो काम, क्रोध आदि पर विजय प्राप्त कर लेता है वह 'जिन' होता है। इस परम्परा में भगवान ऋषभदेव से लेकर भगवान महावीर तक चौबीस तीर्थंकर हो गए हैं। भगवान महावीर तथा बौद्ध धर्म के प्रवर्तक भगवान बुद्ध ई. पू. छठी शताब्दी में हुए। जैन परम्परा के अपने आधार ग्रन्थ हैं जिन्हें जैनागम कहते हैं। जैनागम की भाषा प्राकृत है। जैन परम्परा कब से चली आ रही है इसे निश्चित रूप से बताना अत्यन्त कठिन है लेकिन जैन धर्मावलम्बी भगवान ऋषभदेव को जैन परम्परा का संस्थापक मानते हैं । इतिहास अबतक ऋषभदेव तक नहीं पहुँच पाया है। (ख) बौद्ध परम्परा - बौद्ध परम्परा के संस्थापक भगवान बुद्ध हो गए हैं। उनकी वाणी त्रिपिटकों में संकलित है जो बौद्ध परम्परा के आधार हैं। त्रिपिटकों की भाषा पालि है। श्रमण शब्द का अर्थ सामान्यतः श्रमण शब्द की तीन व्युत्पत्तियां तथा तीन रूप बताए जाते हैं, जो प्रसिद्ध हैं। तीन रूपों में तीन अर्थ भी हैं किन्तु उनमें कोई विरोध नहीं है। (1) शमण यह माना जाता है कि 'शमण' का बदला हुआ रूप 'श्रमण' है। 'शमण' शब्द की व्युत्पत्ति 'शम' धातु से हुई है जिसका अर्थ होता है वश में करना, दबाना, अधिकार में लाना। इससे यह अर्थ लगाया जाता है कि 'शमण' या ' श्रमण' वह है जिसने अपनी इन्द्रियों को अपने वश में कर लिया है, जिसने काम, क्रोध पर नियंत्रण पा लिया है। (2) 'समण' 'समण' से बदलकर 'श्रमण' शब्द के बनने की सम्भावना को भी विद्वानों ने स्वीकार किया है। 'समण' की व्युत्पत्ति 'सम' धातु से हुई है जिसका अर्थ होता हैसमानता। इस प्रकार 'समण' या 'श्रमण' वह है जो समता में विश्वास करता है जो समता के मार्ग पर चलता है। (ग) श्रमण Jain Education International 'श्रमण' शब्द 'श्रम' धातु से बना है। 'श्रम' से अर्थ होता है- 'श्रम करना' 'श्रम' कई तरह से किए जाते हैं। मजदूर सिर पर ईंट-पत्थर उठाता है, कुली सिर पर सामान ढोता है, विद्यार्थी परीक्षा के समय दिन-रात परिश्रम करता है। क्या इन सबको श्रमण कहेंगे? नहीं, यहाँ श्रम करने के अर्थ में साधना रूपी श्रम आता है जो सन्त, महात्मा करते हैं। अतः श्रमण वह है जो साधना रूपी श्रम करता है। साधना एक बहुत ही कठिन श्रम है। साधक खास तौर से हठयोगी जो साधना करते हैं, वह तो स्पष्टतः सामान्य व्यक्ति के लिए असम्भव लगता है। 'जलझप' की स्थिति में साधक किसी नदी या तालाब के किनारे For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012064
Book TitlePrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan Vaishali Swarna Jayanti Gaurav Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhchand Jain
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan Vaishali
Publication Year2010
Total Pages520
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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