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स्वर्ण-जयन्ती गौरव-ग्रन्थ
(2) स्थायित्व
भारतीय संस्कृति का स्थायित्व अपने आप में इसकी प्राचीनकाल से आधुनिक काल तक इसकी मूलभूत स्थापनाएँ एक जैसी हैं। विभिन्न समयों में भारतवर्ष पर विदेशियों ने मात्र आक्रमण ही नहीं किया बल्कि यहाँ की सभ्यता एवं संस्कृति को मिटाने का भी प्रयास किया। परन्तु वे इसमें सफल नहीं हुए और प्राचीन काल से आजतक इस संस्कृति में स्थायित्व बना हुआ है, एकता सुदृढ़ता के साथ करकरार है। "छठी सदी ई. पू. से लेकर बारहवीं सदी तक विभिन्न विदेशी जातियों ने भारत पर आक्रमण किया, अपनी शक्ति और क्रूरता के बल पर स्थायी संगठनों को तोड़ने का सबल उपक्रम भी किया। इनमें पारसी, यूनानी, यूनानी-बाख्खी, शक, पलव, ह्यूण और मुसलमान जैसी विदेशी जातियाँ प्रमुख हैं, जिन्होंने यहाँ अपना राज्य स्थापित किया तथा सदियों तक शासन किया। इन विदेशी आक्रामक जातियों के कारण हिन्दू सामाजिक संस्थाओं को अनेक बार धक्के लगे, किन्तु उन्होंने दृढ़तापूर्वक अपना स्थायित्व बनाए रखा। ........ विभिन्न शताब्दियों में होने वाले परिवर्तन और परिवर्द्धन हिन्दू संस्कृति के अंग बन गए, किन्तु भारतीय सामाजिक संस्थाओं का आधार तत्व वह बना रहा जो वैदिक युग में था। (3) सहिष्णुता
भारतवर्ष पर आक्रमण करने वालों ने यहाँ के लोगों के साथ क्रूरता एवं अमानवीयता के व्यवहार किए, इन्हें मिटाने का प्रयास किया। किन्तु यहाँ वालों ने हमेशा ही अपनी सहिष्णुता एवं सदाशयता का परिचय दिया। क्योंकि यहाँ के ऋषि-मुनियों, सन्त-महात्माओं एवं आचार्यों ने लोगों को शान्ति और प्रेम का पाठ पढ़ाया है। श्री कृष्ण ने गीता में निष्काम कर्मयोग की शिक्षा देकर कर्त्तापन के व्यर्थ अभिमान से अपने को बचाने की बात कही है। जैनाचार्यों ने ईरिया पथिक कर्म का उपदेश दिया है जो निष्काम कर्म का ही जैन परम्परागत नाम है। क्योंकि सहिष्णुता के लिए अभिमान त्याग आवश्यक होता है। गीता, जैनागम, त्रिपिटक ने भारतवासियों को अहिंसा मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित किया है। अहिंसक वह होता है जो हिंसा करने वालों के साथ भी प्रेमपूर्ण व्यवहार करता
(4) आत्मसात् करने की क्षमता
- भारतीय संस्कृति में आत्मसात् करने की क्षमता अत्यन्त प्रबल है। ऐसी ग्राह्यशक्ति अन्य संस्कृतियों में नहीं है। विश्व की अन्य संस्कृतियां अपने को तुरन्त अलग कर लेती हैं जब कोई भिन्न आदर्श और व्यवहार उनके सामने आते हैं। पूर्व वैदिक युग से लेक सदी तक देश में होने वाले सभी परिवर्तनों को यहाँ की संस्कृति में समावेशित पाया जाता है। भारत में जो भी आए भारतवासियों ने उन्हें अपने में मिला लिया। इस महानशक्ति को गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर ने अपनी रचना में बहुत ही उदारता एवं विनम्रता पूर्वक स्वीकार किया है। दिनकर जी ने टैगोर की पंक्तियों का अनुवाद इस प्रकार किया है
"आशय इसका यह है कि भारत देश महामानवता का पारावार है। ओ मेरे हृदय! इस पवित्रतीर्थ में श्रद्धा से अपनी आँखें खोलो। किसी को भी ज्ञान नहीं है कि किसके
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