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जैन संस्कृति
डॉ. वशिष्ठ नारायण सिन्हा*
राष्ट्रकवि रामधारी सिंह 'दिनकर' की प्रसिद्ध रचना 'संस्कृति के चार अध्याय' की प्रस्तावना में भारतवर्ष के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने लिखा है"संस्कृति है क्या? शब्दकोष उलटने पर इसकी अनेक परिभाषाएँ मिलती हैं। एक बड़े लेखक का कहना है कि संसार भर में जो भी सर्वोत्तम बातें जानी या कही गई अपने आपको परिचित कराना संस्कृति है। एक दूसरी परिभाषा में कहा गया है कि *संस्कृति शारीरिक या मानसिक शक्तियों का प्रशिक्षण या विकास या उससे उत्पन्न अवस्था है।" यह मन, आचार अथवा रूढ़ियों की परिष्कृति या शुद्धि है। यह सभ्यता का भीतर से प्रकाशित हो उठना है। इस कथन से यह ज्ञात होता है कि संस्कृति मानवीय आचार-विचार की परिष्कृति है, शुद्धिकरण है जो विश्व के सर्वोत्तम वचनों एवं कर्मों से परिचित होने से हो सकती है। साथ ही यह भी प्रकाशित होता है कि संस्कृति सभ्यता का आन्तरिक विकास है।
के. एम. मुंशी के अनुसार जीवन को परिष्कृत, शुद्ध और पवित्र बनाने के उद्देश्य से हमारे रहन-सहन के पीछे जो मानसिक प्रकृति होती है उसे ही संस्कृति कहते हैं। मुंशी जी ने भी संस्कृति को जीवन की शुद्धि से सम्बद्ध माना है।
डॉ. भगवान दास के मत में मानसिक क्षेत्र में उन्नति की दृष्टि से की गई सभी सम्यक् कृतियां संस्कृति का अंग होती हैं। इसमें धर्म, दर्शन, सभी ज्ञान-विज्ञान, कला, सामाजिक तथा राजनीतिक संस्थाएं एवं प्रथाएं समाहित होती हैं। इस परिभाषा में संस्कृति के विशाल क्षेत्र को प्रकाशित करने का प्रयास हुआ है।
पं. फूलचन्द्र शास्त्री ने संस्कृति शब्द का अर्थ बताते हुए कहा है- "संस्कृति शब्द से सब सत्कार्य लिये जाते हैं जिनसे वहां की सभ्यता फूलती-फलती है। संस्कृति के मुख्य पहलू दो हैं - आचार और विचार, इसलिए जिस देश का दर्शन और चरित्र जितना अधिक उन्नत होता है वहां की संस्कृति उतनी ही अधिक श्रेष्ठ मानी जाती है। विश्व का प्रत्येक प्राणी सुखी कैसे हो सकता है और विश्व में सब प्रकार की बुराइयों को दूर कर शान्ति का साम्राज्य कैसे स्थापित किया जा सकता है इस उदात्त भावना से प्रेरित होकर जिस आचार परम्परा और विचार परम्परा की नींव डाली जाती है उसे ही हम संस्कृति शब्द
* पूर्व आचार्य, दर्शनशास्त्र विभाग, काशी विद्यापीठ, वाराणसी।
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