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________________ महावीर-युग की वैशाली 295 निश्चय ही उपर्युक्त वर्णन से कुण्डपुर के आश्रमोपम बिम्ब का भव्यतम उद्भावन होता है। उक्त ग्रन्थकार द्वारा किये गये आगे के वर्णनों से कुण्डपुर के प्राकृतिक वैभव और स्थापत्य की उत्कृष्टता का रमणीय निदर्शन प्राप्त होता है: वह कुण्डपुर पद्मपूरित जलाशयों से सुशोभित था। वहाँ की कृषि सम्पदा स्पृहणीय थी। मणिरत्न-खचित, ध्वजमण्डित गगनस्पर्शी विमानों-प्रासादों, गम्भीर खाइयों और उन्नत परकोटों से विभूषित कुण्डपुर अतिशय विशाल प्रतीत होता था। वहाँ की कामिनियों के आभूषणों की छटा रात्रि में दीपकों की ज्योति को निष्प्रभ कर देती थी और उनके लावण्य-ललित मुखचन्द्र से चन्द्रमा भी मलिन पड़ जाता था। इस प्रकार प्रस्तुत 'वड्ढमाणचरिउ' से भी स्पष्ट है कि महावीर के समय की वैशाली भारतवर्ष के तत्कालीन धन्यतम महानगरियों में अन्यतम थी। यह कहना अप्रासंगिक नहीं होगा कि उक्त प्रकार के और भी अनेक धार्मिक-पौराणिक जैन ग्रन्थों में महावीर युग की वैशाली की वैभव दीप्ति के सम्बन्ध में महत्वपूर्ण विवरण मिलते हैं। तदनुसार, वैशाली स्थित कुण्डपुर नगर की चर्चा इन्द्रलोक में भी होती थी। वैशाली की भूमि उपवन, कानन, कुंजवन, नदी, सरोवर आदि की प्राकृतिक दिव्यता; भवन, प्राकार, प्राचीर, परिखा, ध्वज, तोरण आदि की वास्तुगत भव्यता तथा धन-धान्य, पशुधन आदि की अपारता के साथ ही बहत्तर कलाओं में निपुण रूपवार नागरिकों की धर्म-प्रभावना की प्रकर्षता आदि की दृष्टि से देवलोक की समता रखती थी, इसलिए वह तीर्थकर महावीर की जन्मभूमि के उपयुक्त थी। जिन प्रभसूरि रचित 'विविध तीर्थकल्प' के शत्रुजय तीर्थकल्प में कुण्डग्राम या कुण्डपुर की तीर्थोपमता को स्वीकार करते हुए कहा गया है कि वहाँ की यात्रा करने से सौगुना फल प्राप्त होता है। मूलश्लोक इस प्रकार हैं: अयोध्या-मिथिला-चम्पा-श्रावस्ती-हस्तिनापुरे। कौशाम्बी-काशि-काकन्दी-काम्पिल्ये भद्रिलाभिधे।। रत्नवाहे शौर्यपुरे कुण्डग्रामेऽप्यपापया। चन्द्रानना-सिंहपुरे तथा राजगृहे पुरे।। श्रीरैवतक-सम्मेत-वैभारा-ऽष्टपदाद्रिषु। यात्रयास्मिस्तेषु यात्राफलाच्छतगुणं फलम्।। इससे स्पष्ट है कि जैनों की दृष्टि में वैशाली का एक महिमाशाली तीर्थ के रूप में अधिक मूल्य था। किन्तु बौद्ध वाड्.मय में वैशाली का राजनीतिक और ऐतिहासिक दृष्टि से भी मूल्यांकन किया गया है और इस सम्बन्ध में पालि-साहित्य में विस्तृत विवरण भी उपलब्ध होता है। इससे सहज ही यह प्रतीत होता है, बुद्ध के एक धर्मनेता के रूप में वैशाली पहुंचने पर महावीर का विशुद्ध धार्मिक माहात्म्य या प्रभाव दिशान्तरित हो गया, साथ ही मगध (राजगृह) से आयातित राजनीति या कूटनीति के उपलेप के कारण वह भ्रान्त जनदृष्टि से अपक्रान्त भी हो गया। यही कारण है कि परवर्ती जैन ग्रन्थकारों ने अपने वर्णनों में वैशाली को मूल्य न देकर कुण्डपुर या क्षत्रिय कुण्डग्राम को अधिक प्रमुखता दी। ईसा की तृतीय-चतुर्थ शती के युगान्तरकारी जैन प्राकृत-कथाकार आचार्य संघदासगणी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012064
Book TitlePrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan Vaishali Swarna Jayanti Gaurav Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhchand Jain
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan Vaishali
Publication Year2010
Total Pages520
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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