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________________ 294 स्वर्ण जयन्ती गौरव-ग्रन्थ वहाँ के भवनों में रहने वाले लोग दाता, धार्मिक, शूरवीर तथा व्रतशील गुणों के धारक होते थे। वे देव-गुरूओं की भक्ति, सेवा और पूजा में लगे रहते थे। वहाँ के निवासी नीतिमार्ग में निपुण, लोक-परलोक के हित-साधन में उद्यत, धर्मात्मा, सदाचारी, धनी, सुखी और ज्ञानी थे। वहाँ के दिव्य रूप गुणवाले पुरुष और उनके समान ही दिव्य रूप गुणवाली स्त्रियाँ देव - देवियों के समान प्रतीत होते थे। इस प्रकार, वह कुण्डपुर तत्कालीन भारतीय सांस्कृतिक चेतना की परमोन्नत स्थिति का परिचायक था। गुणचन्द्रगणिविरचित प्राकृत - निबद्ध 'महावीर चरियं' के सातवें प्रस्ताव में वैशाली का नामोल्लेख पूर्वक वर्णन मिलता है। महावीर स्वामी तपो विहार के क्रम में जिस समय वैशाली नगरी लौटे थे, उस समय वहाँ 'शंख' नाम का गणराजा राज्य करता था। ( 'सो महावीर जिणवरो कमेण विहरमाणो वेसालिं नयरिं संपत्तो, तत्थ य संखो नाम गणराया । ' ) शंख ने महावीर स्वामी का बड़े ठाट-बाट से स्वागत-सत्कार किया था। महावीर स्वामी वहाँ से पुनः वैशाली के पार्श्ववर्त्ती वाणिज्यग्राम नगर में भी पधारे थे। उस समय वैशाली और वाणिज्य ग्राम नगर के बीच अतिशय गहरे जलवाली गण्डकी नदी बहती थी और उसमें नावें चलती थीं। नाविक नौका यात्रियों से खेवा लेकर ही उन्हें पार उतारते थे। निर्ग्रन्थ महावीर स्वामी भी जब नाव से पार उतरे थे, तब नाविकों ने खेवा के लिए उन्हें रोक लिया था। फलतः, महावीर स्वामी को कड़ी धूप में गरम बालू पर बहुत देर तक खड़ा रहना पड़ा था। बाद में, शंख राजा का भाँजा 'चित्त' ने उन्हें नाविकों से छुटकारा दिलाया था। भगवान महावीर ने वाणिज्य ग्राम नगर के बहिर्भाग में जहाँ तपोविहार किया था, वह स्थान वनखण्ड से मण्डित था, जिसमें छहों ऋतुएँ क्रम-क्रम से अपना सौन्दर्य वैभव बिखेरती थीं। वनपादपों में आम्रवृक्षों की प्रधानता थी। सप्तपर्ण, कंकोल, सरल और सल्लकी के पेड़ों की बहुलता थी। उस वनखण्ड में हिरन चौकड़ी भरते रहते थे। मदमत्त हाथी झूमते चलते थे। पक्षियों में पपीहे, नीलकण्ठ और कोयलों की मनोमुग्धकर स्वर - माधुरी मुखरित रहती थी। उस जनपदीय नगर के निवासी जाड़े के दिनों में ठण्ड से सिकुड़ते शरीर में गरमाहट लाने के लिए जगह-जगह घूर' (अग्निपुंज) जलाकर उसके इर्द-गिर्द जमे रहते थे। महावीर स्वामी जब वाणिज्यग्राम नगर के अन्तर्भाग में पहुंचे, तब वहाँ आनन्द नाम के तपोनिरत श्रावक ने उनके दर्शन से केवलज्ञान प्राप्त किया था। इस प्रकार, प्रस्तुत महावीर चरित में भी महावीर युग की वैशाली की धार्मिक, प्राकृतिक तथा जानपद जीवन की स्थिति का सुरम्य चित्र प्रतिबिम्बित हुआ है। आचार्य विबुध श्रीधर (बारहवीं शती) द्वारा अपभ्रंश में निबद्ध 'वड्ढमाणचरिउ' से महावीर - युग की वैशाली के उदात्त रूप का दर्शन होता है। विदेह देश की तत्कालीन वैशाली के उपकण्ठ में अवस्थित कुण्डपुर नगर का कलावरेण्य चित्रण करते हुए अपभ्रंश कवि विबुध श्रीधर ने लिखा है: णिवसइ विदेहु णामेण देसु । खयरामरेहिं सुहयर - पएसु ॥ सुपसिद्धउ धम्मिय -लोय चारु। णिय-सयल - मणोहर कंति - सारु ।। सिय-गोमंडल जणियाणुराय । सुणिसण्ण मयकिय मज्झ-भाय ।। जहि जण - मरा विणिअडइ भाइ । सामन्न निसायर- मुत्ति णाइँ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012064
Book TitlePrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan Vaishali Swarna Jayanti Gaurav Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhchand Jain
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan Vaishali
Publication Year2010
Total Pages520
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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