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महावीर - युग की वैशाली
'वीरवर्द्धमानचरित' के सप्तम अधिकार के प्रारम्भ में महावीर कालीन विदेह जनपद और वहाँ के कुण्डपुर नगर का विपुल सांस्कृतिक चित्र उपन्यस्त किया है। तदनुसार, तत्कालीन विदेह भारतवर्ष के विशाल प्रदेशों में परिगणित था। वह प्रदेश विदेह क्षेत्र के नाम से भी विख्यात था, जिसकी महिमा अविमुक्त क्षेत्र काशी के समानान्तर थी। उक्त प्रदेश या क्षेत्र का 'विदेह' नाम इसलिए भी सार्थक था कि वहाँ के निवासी श्रमण मुनि अपने शुद्ध चारित्र से देहरहित ( सदेहमुक्त) हो जाते थे एवं वे मुनि अपने जीवन काल में विदेहमुक्त होते थे, जिसे गीता में 'जीवन्मुक्त' कहा गया है।
विदेहभूमि की अपनी विशेषता थी कि वहाँ के निवासियों में अनेक मनुष्य सदाचार और विशुद्ध भावनाओं से तीर्थंकर नाम-कर्म अर्जित करने की क्षमता आयत्त कर लेते थे और अनेक मनुष्य पंचोत्तर विमानों में अहमिन्द्रत्व प्राप्त करने की शक्ति से सम्पन्न होते थे। कतिपय भव्य जीव, सत्पात्रों के लिए उत्तम शक्ति के साथ दान करके भोगभूमि अर्जित करते थे और कुछ लोग जिन-पूजन के प्रभाव से इन्द्रत्व को प्राप्त कर लेते थे। उस विदेह - क्षेत्र में देव, मनुष्य और विद्याधरों से वन्दनीय तीर्थंकरों और सामान्य केवलियों की निर्वाण भूमियाँ पदे पदे दृष्टिगत होती थीं। वहाँ के वन, पर्वत आदि ध्यानावस्थित योगियों द्वारा निरन्तर आसेवित थे और नगर, ग्राम आदि ऊँचे-ऊँचे जिन मन्दिरों से सुशोभित रहते थे। केवलज्ञानी भगवान और उनके गणधर धर्म-प्रवृत्ति के निमित्त चारों संघों के साथ वहाँ तपो - विहार किया करते थे।
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इस प्रकार के धार्मिक तथा औत्सविक वातावरण से समलंकृत उस विदेहभूमि, अर्थात् वैशाली के नाभितुल्य मध्यभाग में, अयोध्यानगरी के समान कुण्डपुर नाम का महानगर विराजित था। सुरक्षा की दृष्टि से वह महानगर ऊँचे-ऊँचे गोपुरों, परकोटों और गहरी खाइयों से घिरा था, फलतः वह शत्रुओं के लिए दुर्लघ्य था। वहाँ स्वर्ग के देवता तीर्थयात्रा करने तथा केवली और तीर्थंकरों के पंच कल्याणक महोत्सव मनाने के निमित्त बराबर आया करते थे। इस प्रकार वह विदेहभूमि अनवरत समारोह की सुषमा से परम रमणीय और नित्य नवीन बनी रहती थी।
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उस विशाल नगर में सोने और रत्नों से निर्मित उत्तम जिनालय अपनी पवित्र आभा बिखेरते थे। ज्ञानियों से सुशोभित वह महानगर अद्भुत धर्म-समुद्र की भाँति प्रतीत होता था। वहाँ के जिनालयों में बराबर जय-जयकार गूंजता रहता था और स्तोत्र, गीत, नृत्य, वाद्य आदि की मनोमोहक स्वरमाधुरी अनुध्वनित रहती थी। जिनालयों की दिव्य मणिमय जिन प्रतिमाएँ दिव्य सुवर्ण के अलंकरणों और उपकरणों से दीप्त रहती थीं। पूजन के लिए आने वाले दम्पति अपने उत्कृष्ट गुणों और दिव्य रूपों से देवयुगल के समान सुशोभित होते थे। उस कुण्डपुर में बुद्धिमान तथा 'किमिच्छित' दान करने वाले पुरुष नित्य अपने घर के द्वार पर अतिथियों की प्रतीक्षा करते थे। व्रतनिष्ठ मुनियों को पारण कराने वाले गृहस्थों के घर में निरन्तर रत्नवृष्टि या पंचदिव्य की वर्षा होती रहती थी, जिसे देखकर दूसरे लोगों को भी दान करने की प्रेरणा मिलती रहती थी। वहाँ ऊँचे-ऊँचे गगनचुम्बी प्रासाद (महल) अपनी ध्वजा-रूपी हाथों से देवेन्द्रों का आह्वान करते से प्रतीत होते थे ।
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