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जैनदर्शन में जीव और पर्यावरण चेतना
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सी.सी. पार्क महोदय पर्यावरण को परिभाषित करते हुए कहते हैं कि- मनुष्य एक विशेष स्थान पर, विशेष समय पर जिन सम्पूर्ण परिस्थितियों से घिरा हुआ है उसे पर्यावरण कहते हैं।
पर्यावरण का विभाजन दो घटकों से किया जाता है (1) भौतिक पर्यावरण (2) जैविक पर्यावरण। (1) भौतिक पर्यावरण- भौतिक पर्यावरण के अन्तर्गत ठोस पदार्थ, तरल पदार्थ, गैस पदार्थ को समाहित किया जाता है। ठोस पदार्थ में पृथ्वी, भूमि को सम्मिलित किया जाता है। इसी प्रकार तरल पदार्थ में जल/पानी को तथा गैस पदार्थ में वायु मण्डल को समाहित किया जाता है। (2) जैविक पर्यावरण- जैविक पर्यावरण में पेड़-पौधों, जानवरों तथा मनुष्यों को सम्मिलित किया जाता है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि मनुष्य के चारों और जो भी पदार्थ या वस्तुयें दिखाई दे रहीं हैं वे सभी वस्तुयें किसी न किसी रूप में पर्यावरण से सम्बंधित हैं। इन्हीं वस्तुओं-पदार्थों में (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, मनुष्य, पेड़-पौधों) जैन दर्शन आत्मा-चैतन्य-जीवत्व की सत्ता स्वीकार करता है।
भारतीय धर्म-दर्शन की परम्परा पर दृष्टिपात् करें तो हम पाते हैं कि सभी दर्शनों ने पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति, पशुपक्षियों इत्यादि को किसी न किसी रूप में स्थान दिया है तथा उन सभी में आत्मा की सत्ता को स्वीकार किया है। परन्तु जैन दर्शन आत्मा की सूक्ष्म से भी सूक्ष्म व्याख्या करता है, जो कि वर्तमान समय में पर्यावरण शास्त्रियों के लिए चिन्तनीय विषय होगा। जैन दर्शन में जीव की अवधारणा
जैनदर्शन में जीव का स्वरूप बताते हुए तत्वार्थसूत्र में कहा है कि 'उपयोगो लक्षणम्' अर्थात् उपयोगवान् हो जो जानता, देखता और सुख-दुःख का अनुभव करता हो, जिसमें ज्ञान पाया जाता है वह जीव है। जीव के दो भेद हैं।
__ 1. मुक्त जीव 2. संसारी जीव 1. मुक्त जीव- मुक्त जीव, वे जीव हैं जो मोक्ष जा चुके हैं अर्थात् जो निर्वाण को प्राप्त हो चुके हैं। 2. संसारी जीव- संसारी जीव जो संसार में संसरण कर रहे हैं। दुःख से निवृत्त होने का तथा सुखी होने का प्रयत्न कर रहे हैं। संसारी जीव दो प्रकार के होते हैं। (क) त्रस जीव (ख) स्थावर जीव (क) त्रस जीव- दो इन्द्रिय से लेकर पाँच इन्द्रिय तक के जीव त्रस जीव कहलाते हैं। (a) दो इन्द्रिय जीव- जिसमें स्पर्शन और रसना इन्द्रिय पाई जाये, वह दो इन्द्रिय जीव है। जैसे लट, केंचुआ आदि।
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