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जैनदर्शन में जीव और पर्यावरण चेतना
रामनरेश 'नीरज' जैन*
सम्पूर्ण विश्व के मानचित्र पर उभरने वाले प्रमुख मुद्दों में पर्यावरण संरक्षण की चिन्ता एक प्रमुख मुद्दा बना हुआ है। विकास के नाम पर मनुष्य जिस तीव्र गति से दिन-रात प्राकृतिक संसाधनों का दोहन कर रहा है उससे प्रतीत होता है कि वह दिन दूर नहीं जब यही विकास मानव जाति के विनाश का एक बहुत बड़ा कारण बन जायेगा।
हमारा ईकोसिस्टम जब असन्तुलित होता है और हमारे जीवन की अस्मिता पर ही प्रश्नचिन्ह खड़ा हो जाता है तब विकास के सारे तर्क थोथे नजर आते हैं। यह बात सही है कि विकास को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता, किन्तु जब विकास की प्रक्रिया मानवजाति के अस्तित्व को ही चनौती देने लग जाये तब हमें उस पर पुनः चिन्तन करने की आवश्यकता हो जाती है।
प्राचीन शास्त्र हमें बताते हैं कि आज से हजारों वर्ष पहले भारत देश अधिक समृद्ध व समुन्नत था। यही कारण है कि भारत की प्राचीन ज्ञानराशि हमें आज भी संतुलित और स्वस्थ जीवनशैली की प्रविधि सिखाती है। आज नये सिरे से इस तथ्य की खोज की जा रही है कि प्राचीन शास्त्रों में ऐसे कौन-से सूत्र सन्निहित हैं जिनकी नई व्याख्या करके हम आज विकास और पर्यावरण के बीच संतुलन स्थापित कर सकें।
दूर-दृष्टि सम्पन्न जैनाचार्यों ने सहस्राब्दियों पूर्व ही पर्यावरण प्रदूषण की विकट समस्या का अनुभव किया था और उसके लिए मानव को अहिंसा एवं संयमपूर्ण जीवन व्यतीत करने का निर्देश दिया था तथा इसके लिये उनके द्वारा प्रतिपादित उस निरतिचार श्रावक व्रताचरण को प्रशस्त मार्ग बतलाया, जिसका मूलाधार अहिंसा है।
जैनाचार्यों ने भले ही पर्यावरण शब्द का प्रयोग न किया हो, तथापि श्रावकादि के आचार वर्णन के माध्यम से तद्विषयक विधि-निषेधों पर उसका विचार अवश्य किया है। पर्यावरण शब्द का अर्थ आस-पास या पास-पड़ौस से होता है। पर्यावरण शब्द परि+आवरण का मिश्रण है जो हमें अर्थात मानव, समाज, संस्कृति आदि को चारों ओर से आवृत्त किये हो वह पर्यावरण है।
* शोध छात्र, जैन विश्वभारती विश्वविद्यालय, लाडनूं।
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