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पर्यावरण संतुलन और जैन सिद्धान्त
से स्नानादि करने से अहिंसाव्रत खण्डित होता है। ''10
यह भी कहा गया है- "जो अगालित (बिना छना) जल पीता है, वह जिन आज्ञा को नहीं जानता, जो अगालित जल पीता है वह धीवरों का प्रधान है। ""॥
गालित जल के नियम के कारण श्रावक कभी नदी में स्नान नहीं करते, न वस्त्र धोते हैं, न ही मल-जल का नदी-नालों में प्रवाह करते हैं।
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जल प्रदूषण के कारणों में औद्योगिक बहिःस्राव एक बड़ा कारण है। श्रावकाचार में वे आजीविका कर्म ही वर्जित हैं जिनसे प्रत्यक्षतः त्रस हिंसा होती है या जो त्रस हिंसा का कारण बनते हैं। सागारधर्मामृत में कहा गया है- " श्रावक को प्राणी पीड़ाजनक व्यापार नहीं करने चाहिए। इस खर कर्म निषेध व्रत को भोगोपभोग त्यागव्रत कहते हैं। वन जीविका, अग्नि जीविका, अनोजीविका (वाहन निर्माण), स्फोट कर्म, तेल निकालना या ईखादिका रस निकालने जैसी जीविका, जानवरों के छेदन-भेदन से संबंधित जीविका, हिंसक प्राणियों के पालन-पोषण व दास-दासियों को पोषित कर उन्हें बेचने या भाड़े पर देने जैसी जीविका ( असती पोषण ), सरशोष यानि जलाशयों से पानी निकालकर दूसरी जगह ले जाना यानि तालाब सुखाना जैसी जीविकाएँ, अच्छी खेती के लिए घास या वन जलाने जैसी जीविकाएँ निषिद्ध हैं। विष से सम्बंधित व्यापार, लाख, दाँत व हड्डी, केश व अक्ष वाणिज्य, मदिरा, मधु, चर्बी, मक्खन आदिका व्यापार भी निषिद्ध है। यह सूची संकेत भर है, क्योंकि पाप रूपी आजीविकाओं की गिनती नहीं की जा सकती।
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श्रावक के द्वादश व्रतों में से एक प्रमादचर्या में बिना प्रयोजन भूमि खोदना, वायु रोकना, अग्नि बुझाना, पानी सींचना या बिना जरूरत पानी बिखेरना, बैठे-बैठे पानी में पत्थर फेंकना, बचे हुए जल को जमीन पर डालना, घास खींचना, फूल-पत्ते तोड़ना आदि के त्याग की बात है। इस प्रकार यहाँ निष्प्रयोजन जल प्रदूषण पर रोक लगती है। अनर्थदण्ड व्रत के पापोदेश में नदी में स्नान करने के लिए प्रेरित करना भी त्याज्य है।
भोगोपभोग परिमाण गुणव्रत द्वारा व्यक्ति के जलभोग की सीमा निर्धारित की जा सकती है। इस प्रकार निर्धारित मात्रा से अधिक जल के प्रदूषण से व्यक्ति बच सकता है। नदियों, जलाशयों के जल में विविध पदार्थों को डालने का निषेध करते हुए कहा है- "जो जीव मरे हुए जीवों के कल्याण के लिए तिल पिण्डादि जल में डालकर तर्पण करते हैं उनमें अनेक जीवों (स्थावर व त्रस) की हिंसा करते हैं। यह कितनी मूर्खता की
बात है। 13
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पंच समितियों में से एक उत्सर्ग समिति में मल त्याग संबंधी संयम की बात कही गई है। जल प्रदूषण का एक बड़ा कारण नदी-नालों में मल जल प्रवाह है। इसकी रोक जैनागम द्वारा निम्न प्रकार की गई है- "एकांत स्थान, अचित्त स्थान, सजीव पृथ्वी, सजीव जल, सजीव वनस्पति अर्थात् घास, अंकुरित फसलादि, दूर छिपा हुआ बिल और छेदरहित (वे त्रस जीवों के घर हैं) चौड़ा स्थान और जिसकी निंदा व विरोध न हो ऐसे स्थान पर मूत्र व विष्ठा आदि देहमल का क्षेपण करना चाहिए। 14 यद्यपि यह आचार श्रमणों के लिए निर्दिष्ट है परन्तु यदि श्रावक भी इस आचार का अर्थ यह निकाले कि मानव, जीव-जंतुओं
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