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पर्यावरण संतुलन और जैन सिद्धान्त
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पर्यावरण में जीव और अजीव घटक आते हैं, जैन दर्शन में आकाश का वह स्थान जहां तक जीव और अजीव हैं वह लोक कहा गया है। इस प्रकार लोक और पर्यावरण समानार्थक शब्द हए। इस लोक में षड्द्रव्य पाये जाते हैं, वे हैं जीव, पुदगल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल। जीवों में स्थावर (पृथ्वीकाय, जलकाय, वायुकाय, अग्निकाय, वनस्पतिकाय) व त्रस (द्विन्द्रिय, त्रिन्द्रिय, चतुरेन्द्रिय व सैनी-असैनी-पंचेन्द्रिय) सम्मिलित
__ जैन दर्शन के अनुसार पर्यावरण प्रदूषण के जो कारण नजर आते हैं, वे मुख्यतः प्रदूषण के बाह्य कारण हैं, इनके उपचार से समस्या का पूर्णतः समाधान संभव नहीं है। प्रदूषण का मूल कारण मानव की असीम भोग-विलास, वासना की लालसा है, जिसके वशीभूत होकर मानव प्रकृति के अन्य घटकों को अपने स्वार्थ के लिए निर्दयतापूर्वक प्रयुक्त करता है। जबतक मानव की इस भोगवृत्ति का सीमांकन नहीं होगा तबतक भले ही विविध प्रकार से नये-नये पर्यावरण मित्रयंत्र बना लें, पर्यावरण प्रदूषण नहीं रुकेगा।
मानव की कामवासना ने प्रकृति पर आवश्यकता से अधिक जनसंख्या का भार डाल दिया है। यहीं से शुरू होता है पर्यावरण प्रदूषण का चक्र। इस अत्यधिक जनसंख्या के भरण-पोषण, निर्वहन के लिए अधिक साधनों की आवश्यकता होती है और फिर यंत्रीकरण की ओर मुंह देखना पड़ता है। फलस्वरूप प्रदूषण बढ़ता है और यह प्रदूषण उस जनसंख्या के लिए घातक सिद्ध होगा जिसके भरण-पोषण का दायित्व उनके कंधे पर था।
जैन धर्म का पंचम व्रत ब्रह्मचर्य इस समस्या के समाधान के लिए बेहद उपयोगी है। ब्रह्मचारी व्यक्ति अपनी ऊर्जा को संयोजित कर बहुत कम बाह्य पदार्थों पर निर्भर रहकर ही कार्य चला सकता है। जनसंख्या भी कम बनी रहेगी। प्रकृति प्रदत्त वस्तुएँ मानव के लिए पर्याप्त रहेंगी। मानव सुखी व सरल जीवन जी सकेगा।
पर्यावरण प्रदूषण की जड़ जहाँ भोग-विलासिता है वहां यह भी प्रवृति है कि मानव प्रकृति के अन्य समस्त जैन-अजैव तत्वों से श्रेष्ठ है। अत: मानव को उनके उपभोग और उनपर नियंत्रण-निर्देशन का पूर्ण अधिकार है।
जैनधर्म में जीव रक्षा का महत्वपूर्ण स्थान है। स्थावर और त्रस सभी जीवों को अपना जीवन व्यतीत करने का पूर्ण अधिकार है। महावीर स्वामी की देशना है"णो हीनो णो अतिरिक्ते"। इस जगत् में कोई भी हीन और कोई भी उच्चतर नहीं है। सभी जीव बराबर हैं। जब यह भाव विस्तरित होता है, तभी सभी जीवों के प्रति संवेदना उत्पन्न होती है और ऐसी संवेदना मानव को सर्वजीव हिताय की प्रेरणा देती है।
वायु प्रदूषण, जल प्रदूषण, मृदा प्रदूषण आदि सभी में मानव की यह भावना कार्य करती है कि ये सभी अजैव घटक हैं और इनका उपयोग मानव हेतु ही है। इस धारणा के परिणामस्वरूप मानव इनका अधिकाधिक शोषण करता है और इन तत्वों को करने में लगा रहता है। जैन दर्शन की यह मूलभूत मान्यता है कि वायु, जल और मृदा में केवल जीव ही नहीं रहते वरन् ये भी वायुकायिक, जलकायिक और पृथ्वीकायिक जीव हैं। सभी स्थावरों में कायबल, प्राण, आयुप्राण, श्वासोच्छवास प्राण व स्पर्शन प्राण तथा
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