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स्वर्ण-जयन्ती गौरव-ग्रन्थ
है जिससे भूमि का उपजाऊपन नष्ट होता है, मृदा अपरदन बढ़ता है। मृदा प्रदूषण का फल- भू-प्रदूषण के कारण अपशिष्ट अन्य प्रदूषण यथा- जल प्रदूषण, वायु प्रदूषण को बढ़ाते हैं। प्रदूषित स्थलों से पनपने वाले कीटाणु, जीवाणु, मानव स्वास्थ्य को गहरी क्षति पहुंचाते हैं। मल-जल से सिंचित भूमि में उत्पन्न होने वाली वनस्पति-सब्जियाँ प्रदूषित होती हैं, जिनके उपयोग से मानव, पशु-पक्षियों का स्वास्थ्य भी खराब हो जाता है। भू-क्षरण से रेगिस्तान का विस्तार हो रहा है, उपजाऊ कृषि भूमि घट रही है जिससे मानव के लिए पर्याप्त उपयोगी फसलें उत्पन्न करने में कठिनाई हो रही है। रसायनों और कीटनाशकों के प्रयोग से प्रदूषित मृदा में उत्पन्न होने वाली फल-सब्जियाँ अपने साथ विषैले तत्व मानव शरीर तक ले जाती हैं जो मानव स्वास्थ्य के लिए खतरनाक है। 4. ध्वनि प्रदूषण- व्यक्ति की श्रवण क्षमताओं से अधिक ध्वनि "ध्वनि प्रदूषण" है। एक सीमा से उच्च हो जाने पर सामान्य ध्वनि ही ध्वनि प्रदूषण का रूप ले लेती है। कारण- ध्वनि प्रदूषण का मुख्य कारण नगरीकरण और आधुनिक यांत्रिकीकरण है। वाहनों का विस्तार. औद्योगिक इकाईयों का चलन. ध्वनि प्रसारक यंत्रों का बढ़ना, पटाखे, घरेल उपकरण आदि ध्वनि प्रदूषण के प्रमुख कारक हैं। ध्वनि प्रदूषण का फल- ध्वनि प्रदूषण से मानव, जीव-जंतुओं के स्वास्थ्य पर विपरीत असर पड़ता है। ध्वनि प्रदूषण से मनुष्य में तनाव, स्नावीय रोग, श्रवण क्षमता का कम होना, हृदय रोग आदि हो जाते हैं। इससे मनुष्य असमय ही वृद्ध हो जाता है।
पर्यावरण पर आसन्न संकट मानव अस्तित्व पर आसन्न संकट ही है। इस संकट के परिणामस्वरूप मानव के माथे पर चिंता की रेखाएँ गहरा गई हैं। यह प्रश्न स्वाभाविक है कि इसका समाधान क्या हो। इन्हीं समाधानों को खोजते हुए हमारी दृष्टि विभिन्न विकल्पों की ओर उठती है। यदि इन विकल्पों में हमारी परम्पराएँ और धर्म दर्शन के सार्वभौमिक सिद्धान्त शामिल हों तो कितना अच्छा हो। जैन-धर्म दर्शन ऐसा ही एक विकल्प है जो अपनी दृष्टि विशेष से पर्यावरण चिंतन के प्रति जागरूक है।
यद्यपि जैनागम में पर्यावरण शब्द नहीं मिलता परन्तु जितनी सूक्ष्म विवेचना पर्यावरण के तत्वों के अन्य नाम से जैन साहित्य में की गई है, वह अन्यत्र बहुत ही कम मिलती है।
जैन धर्म के अनुसार व्यक्ति का सर्वोच्च लक्ष्य मोक्ष है। मोक्ष वह अवस्था है जब समस्त कर्मों का क्षय हो जाता है। मोक्ष अवस्था की प्राप्ति के लिए जैन दर्शन में एक विशेष मार्ग दिया गया है, वह मार्ग है सम्यक् दर्शन, ज्ञान और चरित्र का' यह मार्ग ही मानव को अपनी जीवन शैली में परिवर्तन करने को प्रेरित करता है और मानव जीवन में आने वाली विविध समस्याओं का समाधान बताता है।
पर्यावरण संतुलन बिगड़ने का मूल कारण देखने पर ज्ञात होता है कि इसके मूल में मानव की भोगवत्ति है। प्राकतिक जीवन शैली छोडकर मनुष्य जब कृत्रिम शैली अपनाता है और उसी के अनुरूप भौतिक संसाधनों का उपयोग करता है तो उसके परिणामस्वरूप संतुलन डगमगाने लगता है और प्रदूषण उत्पन्न होता है।
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