________________
274
स्वर्ण जयन्ती गौरव-ग्रन्थ
अवशिष्ट पदार्थों को जल में न बहाकर उनको खाद आदि जैसे उपयोगी पदार्थ में परिवर्तित करें, जनसंख्या को नियंत्रित करें, आध्यात्मिकता का वातावरण बनायें, शाकाहार का प्रचार-प्रसार करें और पर्यावरण प्रदूषण की समस्याओं को दूर करने के लिए जनचेतना को जाग्रत करें और लोगों को समझायें कि शुद्ध पर्यावरण ही हमारा जीवन है। उस पर छाने वाले हर संकट की काली बदली हमारे लिए खतरे की घंटी है। अतः हम प्रकृति से अपने महनीय जीवन की कीमत पर खिलवाड़ न करें और पर्यावरण को स्वस्थ और संतुलित बनाये रखने के लिए निःस्वार्थ होकर विकास के हर कदम को तर्क और विवेक की कसौटी पर भलीभांति कसें ताकि भावी गोढ़ी पर्यावरण प्रदूषण के शिकार होने से बच सके।
बीसवीं शताब्दी में कदाचित् सर्वप्रथम 1948 में फोलब्लानगर में संयुक्त राष्ट्रसंघ के सहयोग से प्रकृति के संरक्षण के उद्देश्य से एक अन्तर्राष्ट्रीय संघ स्थापित हुआ। इसके बाद तो लगभग सभी देशों में तरह-तरह के कानून बनते रहे। हमारे भारत में भी ऐसे कानूनों की कमी नहीं रही भले ही हमने उनका उपयोग न किया हो। कानूनों के बन जाने के बाद भी जंगल आदि कटते रहे और उद्योग खड़े होते रहे जिससे पर्यावरण सन्तुलन विघटित हो गया।
संयुक्त राष्ट्र ने पर्यावरण कार्यक्रम की पहल पर 1992 में रियोडि जेनेरियों में हुए 'पृथ्वी सम्मेलन' में ग्रीन हाउस गैंसों के उत्सर्जन में कमी लाने के लिए एक वैश्विक प्रोटोकाल बनाने पर जोर दिया था जो 1997 में क्योटो (जापान) में तैयार किया गया। इससे प्राकृतिक संसाधनों के अंधाधुंध दोहन तथा प्रदूषणकारी तकनीकों के बढ़ते इस्तेमाल से धरती का जो तापमान बढ़ रहा उससे उत्पन्न होने वाले खतरों से बचा जा सकता है। 16 फरवरी 2004 से 141 देशों ने इसे लागू करने का फैसला किया है। इसके अन्तर्गत पर्यावरण सुरक्षित तकनीकों का इस्तेमाल करना होगा और परम्परागत स्रोतों पर निर्भरता घटाना होगी। इस फैसले से प्रकृति और वायुमण्डल के लिए हानिकारक गैसों के उत्सर्जन में कमी लाने के साझा प्रयास किये जायेंगे।
इस तरह के कानूनों से आम आदमी में यह सोच विकसित होती है कि पर्यावरण हमारी रक्षा करता है तो हम भी उसकी रक्षा करें।
जैन धर्म प्रकृतिवादी है। उसका समूचा अध्यात्मवाद प्रकृति की सुरक्षा पर आधारित है। इसलिए जैनाचार्यों ने प्राकृतिक संसाधनों को यथावत् सुरक्षित रखने के लिए प्रारम्भ से ही जनता को आगाह किया है और उसे धर्म से जोड़ दिया है। अनर्थदण्ड को व्रत का रूप देकर पर्यावरण को ही सुरक्षित रखने का विधान दिखाई देता है। इस प्रकार समग्र रूप में पर्यावरण पर यदि चिंतन किया जाए तो समूचा जैन धर्म हमारे सभी प्रकार के पर्यावरणों को अहिंसात्मक ढंग से संतुलित करने का विधान प्रस्तुत करता है और वैयक्तिक तथा सामाजिक शांति के निर्माण के स्थायित्व की दृष्टि से नये आयामों पर विचार करने को विवश करता है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org