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________________ 272 स्वर्ण-जयन्ती गौरव-ग्रन्थ को भी पर्यावरण से जोड़ा जा सकता है। संक्षेप में यदि कहा जाए तो धर्म ही पर्यावरण का रक्षक है और नैतिकता उसका द्वारपाल। आज हमारे देश में चारों ओर अनैतिकता और भ्रष्टाचार सुरसा की भाँति बढ़ रहा है। चाहे वह राजनीति का क्षेत्र हो या शिक्षा का, धर्म का क्षेत्र हो या व्यापार का, सभी के सिर पर पैसा कमाने का भूत सवार है माध्यम चाहे कैसा भी हो इससे हमारे सारे सामाजिक सम्बन्ध तहस-नहस हो गए हैं। भ्रातृत्व भाव और प्रतिवेशी संस्कृति किनारा काट रही है, आहार का प्रकार मटमैला हो रहा है, शाकाहार के स्थान पर अप्राकृतिक खान-पान स्थान ले रहा है। शाकाहार अहिंसा और करुणा पर टिकी एक जीवनशैली है, सात्विक मानवीय और सुविकसित जीवन दर्शन है। उसमें लूटखसोट, मारकाट और क्रूरता नहीं होती। आर्थिक दृष्टि से भी शाकाहार एवं पर्यावरण का अत्यन्त घनिष्ठ सम्बन्ध है। शाकाहार मानव को प्रकृति से जोड़ता है इसलिए प्रकृति की रक्षा भी इससे जुड़ी हुई है उसमें मानव शरीर के लिए सभी तरह के पोषक पदार्थ विद्यमान हैं जबकि मांसाहार रोगों का घर है। शाकाहार से पशु-पक्षियों की कई जातियां लुप्त होने से भी बच जायेंगी और प्रदूषण की समस्या का भी समाधान हो जायेगा। मिलावट ने व्यापारिक क्षेत्र को सड़ी रबर की तरह दुर्गन्धित कर दिया है। अर्थलिप्सा की पृष्ठभूमि में बर्बरता बढ़ रही है। प्रसाधनों की दौड़ में मानवता कूच कर रही है। इन सभी भौतिक वासनाओं की पूर्ति में हम अपनी आध्यात्मिक संस्कृति को भूल बैठे हैं। मानसिक, वाचिक और कायिक क्रियाओं के बीच समन्वय खत्म हो गया है। हमारी धार्मिक क्रियायें मात्र बाह्य आचरण का प्रतीक बन गयी हैं। परिवार का आदर्श जीवन समाप्त हो गया है, ऐसी विकट परिस्थिति में अहिंसा के माध्यम से पर्यावरण को सन्तुलित बनाए रखने की साधना को पुनरुज्जीवित करना नितान्त आवश्यक हो गया है। ऐसी विकट परिस्थिति में पर्यावरण का यह बाह्य और आंतरिक असंतुलन धार्मिक, सामाजिक और राजनीतिक क्षेत्र में जबरदस्त क्रांति लाएगा। यह क्रांति अहिंसक हो तो निश्चित ही उपादेय होगी, पर यह असंतुलन और बढ़ता गया तो खूनी क्रांति होना भी असंभव नहीं। जहां एक-दूसरे समाज के बीच लंबी-चौड़ी खाई हो गयी हो, एक तरफ प्रासाद और दूसरी तरफ झोपड़ियां हों, एक ओर कुपच और दूसरी ओर भूख से मृत्यु हो तो ऐसा समाज बिना वर्ग-संघर्ष के कहां रह सकता है? सामाजिक समता की प्रस्थापना और वर्ग संघर्ष की व्यथा-कथा को दूर करने के लिए अहिंसक समाज की रचना और पर्यावरण की विशुद्धि एक अपरिहार्य साधन है। यही मानव धर्म है, यही हमारी नैतिकता है एवं खु णाणिणो सारं जं हिंसइ ण कंचणं। अहिंसा समयं चेव एयावंतं वियाणिया।। - सूत्रकृतांग, 1.1.4.10 जैसा हमने पीछे संकेत किया है, पर्यावरण का प्रथमत: दृश्य संबंध हमारे शरीर से है। जैनाचार्यों ने उपासक दशांग, भगवतीसूत्र आदि ग्रंथों में ऐसे बीसों रोगों की चर्चा की है जो पर्यावरण के असंतुलित हो जाने से हमारे शरीर को घेर लेते हैं और मृत्यु की ओर हमें ढकेल देते हैं। 'अंगविज्जा' में तो इन सारे संदर्भो की एक लंबी लिस्ट मिल जाती Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012064
Book TitlePrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan Vaishali Swarna Jayanti Gaurav Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhchand Jain
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan Vaishali
Publication Year2010
Total Pages520
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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