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अहिंसा की परिधि में पर्यावरण सन्तुलन
में जैन धर्म की निश्चित ही अहम् भूमिका रही है। इतना ही नहीं, वनस्पति जगत और पशु-पक्षी जगत से तीर्थकरों के चिन्हों को ग्रहण किया जाना भी उनके प्रति मां की ममता को प्रस्थापित करना है और 72 कलाओं और 14 या 16 स्वप्नों में प्रकृति जगत को स्थान देना उसके महत्व को स्वीकार करना है।
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यह एक विश्वजनीन सत्य है कि पदार्थ में रूपान्तरण प्रक्रिया चलती रहती है। 'सद्द्रव्य-लक्षणम्" और "उत्पाद्-व्यय- ध्रौव्य- युक्तम् सत्" सिद्धान्त सृष्टि संचालन का प्रधान तत्व है। रूपान्तरण के माध्यम से प्रकृति में सन्तुलन बना रहता है। पदार्थ पारस्परिक सहयोग से अपनी जिन्दगी के लिए ऊर्जा एकत्रित करते हैं और कर्म सिद्धान्त के आधार पर जीवन के सुख-दुःख के साधन संजो लेते हैं। प्राकृतिक सम्पदा को असुरक्षित कर उसे नष्ट-भ्रष्ट कर हम अपने सुख-दुःख की अनुभूति में यथार्थता नहीं ला सकते। अप्राकृतिक जो भी होगा, वह मुखौटा होगा, मिलावट के अलावा और कुछ नहीं प्रकृति का हर तत्व कहीं न कहीं उपयोगी होता है। यदि उसे उसके स्थान पर हटाया गया तो उसका प्रतिफल बुरा भी हो सकता है। ब्रिटेन में मूंगफली की फसल अच्छी बनाने के लिए मक्खी की सृष्टि को नष्ट किया गया फिर भी मूंगफली का उत्पादन नहीं हुआ, क्योंकि वे मक्खियाँ, मूंगफली के पुष्पों के मादा और नर में युग्मन करती थीं। सर्प आदि अन्य कीड़े-मकोड़ों आदि के विषय में भी यही बात कही जा सकती है। उनके विनाश से हमें प्राकृतिक शक्तियों से लोहा लेना पड़ता है जिनसे वे निपटा करते थे।
आर्थिक विकास एवं तीव्र औद्योगीकरण दोनों परस्पर पर्यायार्थक शब्द हो गये हैं। जनसंख्या की वृद्धि के साथ-साथ आर्थिक विकास भी आवश्यक हो गया और फलतः उद्योगों की स्थापना होने लगी। उद्योग के क्षेत्र में दो घटक होते हैं- उत्पादक और उपभोक्ता। दोनों की वृत्तियों से पर्यावरण प्रभावित होता है। उपभोक्ता क्रमशः आरामदायक और विलासिता संबंधी वस्तुओं को खरीदता है और उत्पादक उसका शोषण कर अधिक से अधिक पैसा अर्जित करने का प्रयत्न करता है। फलतः दोनों के बीच विषाक्त वातावरण बन जाता है और अनैतिकता घर कर जाती है।
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जनसंख्या वृद्धि का यह भी एक कुपरिणाम हुआ है कि वनों को काटकर खेती की जाने लगी है। उत्पादन बढ़ाने वाले आधुनिक रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग होने लगा है। जिससे नैसर्गिक उत्पादन क्षमता में ह्रास हुआ है और पर्यावरण पर कुप्रभाव पड़ा है। आबादी जैसे-जैसे बढ़ेगी, वस्त्र, आवास और अन्न की समस्या भी उत्पन्न होगी इस समस्या को समाधानित करने के लिए एक ओर वनों को और भी काटना शुरू हो जाएगा तो दूसरी ओर जीव - हिंसा की प्रवृत्ति बढ़ेगी।
पर्यावरण का सम्बन्ध मात्र प्राकृतिक सन्तुलन में ही नहीं है बल्कि आध्यात्मिक और सामाजिक वातावरण को परिशुद्ध और पवित्र बनाए रखने के लिए भी उसका उपयोग किया जाता है। इस कथन की सिद्धि के लिए हम जैन-बौद्ध-वैदिक आदि परम्पराओं में मान्य उन चैत्य और बोधि वृक्षों का उल्लेख कर सकते हैं जिनके नीचे बैठकर तीर्थंकरों, बुद्धों और ऋषि - महर्षियों ने ज्ञान प्राप्त किया था। इतना ही नहीं, जैन तीर्थंकरों के चिन्हों
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