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स्वर्ण-जयन्ती गौरव-ग्रन्थ
रिसाव से हजारों लोग प्रभावित हुए। ऊर्जा का यदि सही उपयोग किया जाए तो वह मानव के विकास में बहुत सहायक सिद्ध हो सकती है। कोयला, तेल, गैस, बिजली, भाप, पेट्रोल, डीजल आदि ऊर्जा के ही रूप हैं जिनसे हम अपनी सुविधाएं जुटाते हैं। इसका ताप पर्यावरण संतुलन को बिगाड़ता है। रेडियोधर्मी विकिरण से त्वचा जल जाती है। यह न तो दिखाई देती है, न इसमें कोई गंध होती है पर शरीर पर घातक प्रभाव छोड़ती है।
इसी तरह ओजोन गैस हमारे लिए एक जीवनदायिनी शक्ति है जो रासायनिक क्रियाओं के द्वारा सूर्य की पराबैंगनी किरणों के विषैले विकिरण को पृथ्वी तक आने ही नहीं देती। परन्तु पिछले दो दशकों में हमने आधुनिकता की अंधी दौड़ में क्लोरो-फ्लोरो कार्बन का प्रचुर उत्पादन किया है, जिससे ओजोन की छतरी में विशाल छिद्र हो चुके हैं और उसका क्षरण प्रारंभ हो गया है। फलतः प्रदूषण के कारण भयानक रोगों को हमने आमंत्रित कर लिया है। इसके बावजूद आवश्यकता को ध्यान में रखकर अमेरिका ने क्लोरो-फ्लोरो कार्बन का उत्पादन पुनः प्रारंभ कर दिया है। 1 जनवरी 1987 में कनाडा के मांट्रियल शहर में 48 देशों ने एक समझौता किया जिसमें उसके उत्पादन पर नियंत्रण का प्रस्ताव था। भारत सहित चीन, ब्राजील, दक्षिण कोरिया आदि राष्ट्रों ने इस समझौते पर हस्ताक्षर करने से अपनी असमर्थता व्यक्त की, इस तर्क के साथ कि उक्त घातक रसायनों के लिए अमेरिका ही सर्वाधिक उत्तरदायी है।
नायाधम्मकहाओ में भी अनेक ऐसे प्रसंग हैं जहां प्रकृति का सुंदर वर्णन किया गया है। (1.44; 1.82, 2.10, 2.15, 5.3) और उससे आकर्षक उपमाओं, उत्प्रेक्षाओं और रूपकों के लिए सामग्री एकत्रित की गयी है। भवनों में भित्ति-चित्रों पर प्राकृतिक चित्रों को उकेरकर उन्हें जनजीवन से समरस किया गया है। (1.16-18, 1.30, 1.44)। वनस्पति और पशजगत की उपयोगिता दिखाई गयी है। (1.34, 2.24), दावानल से पर्यावरण प्रदूषण (1.166-183), चारित्रिक पतन से सामाजिक प्रदूषण (2-9), समुद्र प्रदूषण (नवम् अध्याय) और मल्लि प्रतिमा में कचड़े के भर देने से उत्पन्न दुर्गन्धजन्य प्रदूषण की ओर संकेत मिलते हैं (आठवां अध्याय)। मंडप को लीप-पोत कर साफ रखना तथा नगर की गलियों को तरह-तरह के पुष्पों से सजाकर उन्हें सुगन्धित द्रव्यों से पर्यावरण प्रदूषण बचाना भी यहां उल्लेखनीय है।
पर्यावरण प्रदूषण की इस भीषणता का अंदाज हमारे जैनाचार्यों को बहुत पहले ही हो गया था। जैनागमों में जिस भयंकर अकाल, बाढ़, आदि का वर्णन मिलता है वह स्वयं इस तथ्य का प्रतीक है कि जैन धर्म की अहिंसा की पृष्ठभूमि में पर्यावरण सुरक्षा का भाव रहा होगा और पर्यावरण के प्रदूषण की भयावहता का ध्यान रखकर वनस्पति जगत
बल्कि समचे पथ्वी. अप. तेज. वाय में रहने वाले जीवों के अस्तित्व की पैरवी की और उनकी हिंसा से लोगों को विरत किया। आज के वैज्ञानिक अनुसंधान ने भी इस तथ्य पर अपनी सील लगा दी कि स्थावर जीवों में भी भावग्रहण की शक्ति है।
स्थावर जीवों के समान त्रसकायिक जीवों की उपयोगिता को स्पष्ट करते हुए उनकी भी जीवन रक्षा का उपदेश जैनागमों में मिलता है। पशु-पक्षी समुदाय की सुरक्षा
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