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अहिंसा की परिधि में पर्यावरण सन्तुलन
अवश्य दिखाई देते हैं पर उन्हें हम आप जैसी कष्टानुभूति होती है। पेड़-पौधे जनमते, बढ़ते और म्लान होते हैं। भगवतीसूत्र के सातवें आठवें शतक में स्पष्ट कहा गया है कि वनस्पतिकायिक जीव भी हम जैसे ही श्वासोच्छ्वास लेते हैं। शरद, हेमन्त, वसन्त, ग्रीष्म आदि सभी ऋतुओं में कम से कम आहार ग्रहण करते हैं। वर्तमान विज्ञान की दृष्टि से भी यह कथन सत्य सिद्ध हुआ है। प्रज्ञापना (22 से 25 सूत्र) में वनस्पतिकायिक जीवों के अनेक प्रकार बताये गये हैं और उन्हीं का विस्तार अंगविज्जा आदि प्राचीन ग्रन्थों में मिलता है। इन ग्रन्थों के उद्धरणों से यह तथ्य छिपा नहीं है कि तुलसी जैसे सभी हरे पौधे और हरी घास, बांस आदि वनस्पतियाँ हमारे जीवन के निर्माण की दिशा में बहुविध उपयोगी हैं।
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जैन धर्म वनस्पति में भी चेतना के अस्तित्व को प्रारम्भ से ही स्वीकार करता है जिससे आधुनिक विज्ञान भी सहमत है। पौधे अपनी हिंसा से भयभीत हो जाते हैं, दुःखी हो जाते हैं। इसलिए जैनधर्म वनस्पति-जगत को काटने में हिंसा मानता है और उससे विरत रहने का निर्देश देता है ( आचारांग, 1.5.82, मूला. 5-23, दस 4-8 ) । उसके अनुसार वृक्ष, कन्दमूल आदि प्रत्येक वनस्पति हैं। पृथक्-पृथक् शरीर वाले हैं और मूली, अदरक आदि को साधारण वनस्पति माना जाता है जिनमें अनन्त जीव रहते हैं। पर्यावरण को सुरक्षित रखने की दृष्टि से जैनधर्म में इन सभी की हिंसा वर्जित मानी गयी है।
स्वचालित वाहनों और औद्योगिक संसाधनों से निकलने वाली गैस से वायुमंडल तेजी से दूषित हो रहा है। विषाक्त धुआं और गैस मनुष्य के फेफड़ों में जाकर स्वास्थ्य पर कुठाराघात करती है। खांसी, दमा, सिलिकोसिस, तपैदिक, कैंसर आदि बीमारियां वायु प्रदूषण से ही हो रही हैं।
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मोटर वाहनों, कल-कारखानों आदि का तीव्र शोर पर्यावरण को अपनी कम्पनों द्वारा दूषित करता है जिससे मनुष्य की श्रवण शक्ति प्रभावित होती है और वे बहरे हो जाते हैं। इतना ही नहीं, शोर से उनका हृदय और मस्तिष्क भी कमजोर हो जाता है। शोर से अनिद्रा, सिरदर्द, तनाव, चिड़चिड़ाहट और झुंझलाहट भी बढ़ती है। इससे रोगियों को स्वस्थ होने में देर लगती है और कभी-कभी तो अधिक शोर रोगियों की मृत्यु का भी कारण बन जाता है। सन् 1905 में नोबिल पुरस्कार विजेता राबर्ट कोच ने ध्वनि-प्रदूषण के बारे में कहा था कि एक दिन ऐसा आएगा, जब मनुष्य को स्वास्थ्य के सबसे बड़े शत्रु के रूप में निर्दयी 'शोर' से संघर्ष करना पड़ेगा। यह ध्वनि-प्रदूषण उद्योग-धंधों, मशीनों, परिवहन और मनोरंजन के साधनों द्वारा उत्पन्न हो रहा है, जिसे संयमित किया जाना परमावश्यक है। क्योंकि इसका दुष्प्रभाव पेड़-पौधों, जीव-जंतुओं और प्राकृतिक संपदा पर पड़ता है।
रेडियोधर्मी प्रदूषण भी हो रहा है- अणु, परमाणु, हाइड्रोजन बमों आदि के परीक्षणों से। यह प्रदूषण वनस्पति को बुरी तरह प्रभावित करता है। भूमि की उर्वराशक्ति को नष्ट करता है और सारे वातावरण को विषेला बना देता है। हीरोशिमा और नागासाकी इसके ज्वलंत उदाहरण हैं। हमारे सामने एक उदाहरण और है भोपाल गैस कांड का, जिसके
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