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स्वर्ण जयन्ती गौरव-ग्रन्थ
हैं जो पृथ्वी के नीचे कुएं, नदी, सरोवर आदि में रहते हैं इन जल प्रकारों में औषधियाँ भी मिली रहती हैं जो स्वास्थ्य के लिए हितकर होती हैं। यदि जल प्रदूषित हुआ तो उसका प्रभाव व्यक्ति के स्वास्थ्य पर निश्चित ही पड़ने वाला है। अनर्थदण्ड नामक व्रतपालन के माध्यम से साधक जल को प्रदूषित होने से तथा उसे अनावश्यक बहाने से बचाता है। जल को प्रदूषित करने में कागज, स्टील, शक्कर, वनस्पति, घी, रसायन, उद्योग, चमड़ा-शोधन, शराब - उद्योग, वस्त्र रंगाई उद्योग, मांस उद्योग बहुत सहायक सिद्ध हो रहे हैं। सैप्टिक टेंकों और मलवाहक पाइपों के रिसाव से भी जल प्रदूषित हो रहा है।
यह दूषित जल निश्चित ही हमारे स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। पीलिया और पोलियो जैसे वायरस रोग, दस्त, हैजा, टायफाइड जैसे बैक्टीरिया रोग और सूक्ष्म जीवों व कृमियों से उत्पन्न होने वाले रोग दूषित प्रदूषित जल के उपयोग से ही होते हैं। एक बूंद पानी में हजारों जीव रहते हैं, यह वैज्ञानिक तथ्य है। आज के प्रदूषित पर्यावरण में पाताली कूपों, जलाशयों, नदियों और समुद्रों का जल भी उपयोगिता की दृष्टि से प्रश्नचिन्ह खड़ा कर देता है। खाड़ी युद्ध के संदर्भ में समुद्र में गिराये हुए तेल से समुद्री जीवों का अस्तित्व खतरे में पड़ गया और उसमें रहने वाले खाद्य शैवाल (काई), लवण आदि उपयोगी पदार्थ दूषित हो गये। अनेक जल संयंत्रों के खराब होने का भी अंदेशा हो गया।
अग्नि में भी जीव होते हैं जिन्हें हम मिट्टी, जल आदि डालकर प्रमादवश नष्ट कर डालते हैं। वायु कायिक जीव भी इसी तरह हमसे सुरक्षा की आशा करते हैं। आज का वायु प्रदूषण हमें उस ओर अप्रमत्त और अहिंसक रहने का संकेत करता है।
जैनागम में यह स्थापना की गई है कि अग्नि से ऊष्म शक्ति उत्पन्न होती है। प्रकाश शक्ति है, इसलिए उसका अस्तित्व है। मिट्टी, बालू आदि से उसे बुझाया जा सकता है। यह बुझाना भी हिंसा है ( आव. नि., गाथा 123-24, तिलोय. प. 5-278-80), अंगार, विद्युत, मणि, ज्वाला आदि में अग्निकायिक जीव रहते हैं। इसी तरह वायुकायिक जीव भी एकेन्द्रिय है। पंखा, ताड़पत्र, चामर आदि से इन जीवों का विनाश होता है (आव. नि., गाथा 170 ) । हम जानते हैं, जैन श्रमणाचार के अनुसार वह न बिजली जलाता है और न पंखा आदि चलाता है (आव. 1.7.49, मूलाचार, 5.15, दस. 4. 7)। मौनव्रत, ईर्या समिति आदि के माध्यम से वायुमण्डल को प्रदूषित होने से बचाया जा सकता है।
वायु प्रदूषण के साथ-साथ भूमि प्रदूषण भी आजकल बढ़ता जा रहा है। कृषि में रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशक दवाइयों के प्रयोग का दुष्प्रभाव भूमि पर पैदा होने वाले खाद्यान्न, फल-सब्जियों आदि पर पड़ता है और हमारे भाजन को दूषित कर देती हैं। कीटनाशक डी.डी.टी. और बी.एच.सी. की विषाक्तता तो अब और भी बढ़ गयी है। जिन कीटाणुओं पर इनका प्रयोग किया जाता है, उनमें अब निरोधक क्षमता बढ़ गयी है इससे इन दवाओं का असर उनपर कम हो गया है। पर हमारे खान-पान में इन दवाओं से प्रभावित जो वनस्पतियां आ रही हैं उनसे कैंसर, मस्तिष्क, रुधिर व हृदय रोगों में वृद्धि हुई है। वनस्पतिकायिक जीवों की हिंसा आज सर्वाधिक बड़ी समस्या बनी हुई है। पेड़-पौधों को काटकर आज हम उन्हें व्यर्थ ही जलाते चले जा रहे हैं। वे मूक-बधिर
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