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अहिंसा की परिधि में पर्यावरण सन्तुलन
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के भी केन्द्र बन गये। इन जनश्रुतियों की चर्चा से अधिक महत्व का प्रसंग वृक्षों के संरक्षण का है।
___ इधर कुछ वर्षों से पर्यावरण संतुलन काफी डगमगा गया है। बढ़ती हुई आबादी तथा आधुनिक औद्योगिक मनोवृत्ति ने पर्यावरण को बुरी तरह प्रदूषित कर दिया है। जंगल के जंगल कटते चले जा रहे हैं। सामर्थ्य के बाहर खेतों से खाद्यान्न पैदा करने का प्रयत्न किया जा रहा है। कीटनाशक दवाओं और रासायनिक खादों के प्रयोग से खाद्य सामग्री दूषित होती जा रही है, शुद्ध पेय जल कम होता जा रहा है। वन्य पशु-पक्षी लुप्त-से हो रहे हैं। कालिदास जैसे महाकवियों के वन-उपवन, अरण्य आज अदृश्य से होते जा रहे हैं। पर्यावरण के असंतुलित हो जाने से ऋतु चक्र में बदलाव आया। भीषण बाढ़ का प्रकोप बढ़ा, कैंसर, हृदयाघात, मानसिक तनाव, रक्तचाप जैसे विघातक रोगों की संख्या बढ़ी, शुद्ध-हवा पानी मिलना मुश्किल-सा हो गया, गंगा-नर्मदा जैसी नदियों की पवित्रता पर प्रश्नचिन्ह लग गया। जगह-जगह भूचाल हो रहे हैं। सुनामी लहरों का प्रकोप भी पर्यावरण के असन्तुलन का कारण है।
यह सब हुआ प्रकृति पर दिग्विजय की महत्वाकांक्षा पालने के कारण और मानव की स्वार्थभरी मानसिकता के कारण। हमारी अज्ञानता ने हमें प्रकृति के वास्तविक रूप को समझने से दूर रखा, धर्म-अधर्म का विवेक हमने खो दिया, मानवता को दरकिनार रख तकनीकी और वैज्ञानिक विकास ने हमें अंधा बना दिया। फलतः प्राकृतिक विपदाओं के अंबार लग गये।
प्रकृति प्रदत्त सभी वनस्पतियां हम-आप जैसी सांस लेती हैं कार्बन-डाय-ऑक्साइड के रूप में और सांस छोड़ती हैं ऑक्सीजन के रूप में। यह कार्बन-डाय-ऑक्साइड पेड़-पौधों के हरे पदार्थ द्वारा सूर्य की किरणों के माध्यम से फिर ऑक्सीजन में बदल जाती है। इसलिए बाग-बगीचों का होना स्वास्थ्य के लिए अत्यावश्यक है। पेड़-पौधों की यह जीवन-प्रक्रिया हमारे जीवन को संबल देती है, स्वस्थ हवा और पानी देकर आवाहन करती है जीवन को संयमित और अहिंसक बनाये रखने का। सारा संसार जीवों से भरा हुआ है और हर जीव का अपना-अपना महत्व है। उनके अस्तित्व की हम उपेक्षा नहीं कर सकते। उनमें भी सुख-दु:ख के अनुभव करने की शक्ति होती है। उनका संरक्षण हमारा नैतिक उत्तरदायित्व है।
त्रस, ये दो प्रकार के जीव बतलाये गये हैं। स्थावर जीवों में चलने-फिरने की शक्ति नहीं होती, ऐसे जीव पांच प्रकार के होते हैं(1) पृथ्वीकायिक, (2) अप्कायिक, (3) वनस्पतिकायिक, (4) अग्निकायिक और
5) वायकायिका दो इन्द्रियों से लेकर पांच इन्द्रियों वाले जीव त्रस कहलाते हैं। जैनशास्त्रों में इन जीवों के भेद-प्रभेदों का वर्णन बडे विस्तार से मिलता है जो वैज्ञानिक दृष्टि से भी सही उतरता है। इन सब जीवों का गहरा सम्बन्ध पर्यावरण से है।
हमारे चारों ओर की भूमि, हवा और पानी ही हमारा पर्यावरण है। इनसे हमारा पुराना सम्बन्ध है लेकिन इससे भी अधिक पुराना सम्बन्ध है पौधों और जानवरों से। हमारे
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