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स्वर्ण जयन्ती गौरव-ग्रन्थ
लिए सारे जानवर और पौधे जरूरी हैं। उनके बिना हमारा जीवन सुसंचालित नहीं हो सकता। यह पर्यावरण जीव-जन्तुओं और पेड़ पौधों के कारण ही जीवन्त है। उनकी हिंसा करने पर प्रकृति भी अपनी प्रतिक्रिया दिखलाती है। आज के भौतिक वातावरण में विज्ञान की चकाचौंध में हम अज्ञानवश अपने क्षुद्र स्वार्थ के लिए अपने प्राकृतिक पर्यावरण को दूषित कर रहे हैं। इससे प्रकृति का सन्तुलन डगमगाने लगा है। उसकी सादगी और पवित्रता कुचली जा रही है, नष्ट हो रही है। इसका मूल कारण है हमारी असंयममूलक तृष्णा और प्रबल आशा का संचरण। हमने वन, उपवन को नष्ट-भ्रष्ट कर ऊँची-ऊँची अट्टालिकायें बना लीं, बड़े-बड़े कारखाने स्थापित कर लिए जिनसे हानिकारक रसायनों, गैसों का निर्झरण हो रहा है, उपयोगी पशु-पक्षियों और कीड़ों-मकोड़ों को समाप्त किया जा रहा है। वाहनों आदि से ध्वनि, प्रदूषण, गन्दगी, कूड़ा-कचड़ा आदि बहा देने से जल प्रदूषण और गैसों से वायु प्रदूषण हो रहा है। हम अपने क्षणिक लाभ के लिए सारी प्राकृतिक सम्पदा को असन्तुलित करने के दोषी बन रहे हैं।
कुछ प्रदूषण प्रकृति से होता है पर उसे प्रकृति ही स्वच्छ कर देती है। जैसे पेड़-पौधों की कार्बन डाई आक्साइड सूर्य की किरणों से साफ होकर आक्सीजन में बदल जाती है। हमारा बहुत सारा जीवन इन्हीं पेड़-पौधों पर अवलम्बित है। वैज्ञानिकों ने अपने अनुसन्धान के आधार पर स्पष्ट किया है कि अलग-अलग तरह के पेड़ पौधों की पत्तियाँ विभिन्न गैसों आदि के जहर, धूल आदि से जूझकर पर्यावरण को स्वच्छ रखती हैं। इस संदर्भ में नीम की पत्तियाँ विशेष उल्लेखनीय हैं। जंगल कट जाने से वर्षा कम होती है, आबहवा बदल जाती है, सूखा पड़ता है, बाढ़ आती है, गर्मी अधिक होती है।
यदि हमने पर्यावरण की सुरक्षा और प्रदूषण की मात्रा कम नहीं की तो पर्यावरण जहरीला होकर हमारे जीवन को तहस-नहस कर देगा। नई-नई बीमारियों से हम त्रस्त हो जाएंगे। पर्यावरण की रक्षा वस्तुतः हमारा विकास है। उदाहरण के तौर पर काई, आम, पीपल, बरगद आदि पेड़-पौधे वातावरण की गन्दी हवा को छानकर और स्वयं जहर का घूँट पीकर हमें स्वच्छ हवा और प्राणवायु देते हैं। इसी तरह आम, सूर्यमुखी, चौलाई, कनकौना, गौर, सनई आदि भी गन्दी हवा दूर करके हमारी सेवा करते हैं।
वैज्ञानिक अनुसन्धान के फलस्वरूप यह स्पष्ट है कि पर्यावरण का असन्तुलन हिंसाजन्य है और यह हिंसा तब तक होती रहती है जबतक हमें आत्मबोध न हो। आत्मतुला की कसौटी पर कसे बिना व्यक्ति न तो दूसरे के दुःख को समझ सकता है और न उसके अस्तित्व को स्वीकार कर पाता है। कदाचित् यही कारण है कि आचारांग जैसे प्राचीनतम आगम ग्रन्थ का प्रारम्भ शस्त्रपरीक्षा से करके हमें अस्तित्व बोध कराया गया है। यह अस्तित्व बोध अहिंसात्मक आचार-विचार की आस्था का आधारस्तम्भ है। अहिंसा के चार मुख्य आधार स्तम्भ हैं- आत्मवाद, लोकवाद, कर्मवाद और क्रियावाद । प्राकृतिक पर्यावरण और नैतिक पर्यावरण, दोनों की सुरक्षा के लिए इन चारों मापदण्डों का पालन करना आवश्यक है। इनकी पृष्ठभूमि में अहिंसा - दर्शन प्रहरी के रूप में खड़ा रहता है।
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