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अष्टाङ्गो
की उपलब्धि भी हो सकती है। परन्तु इन उपलब्धियों के प्रति आसक्त होने से वह योगभ्रष्ट हो सकता है। भगवद्गीता में अर्जुन ने कृष्ण से पूछा कि योगभ्रष्ट की गति क्या होती है। श्रीकृष्ण ने उत्तर दिया कि योग से भ्रष्ट होने पर भी साधक दुर्गति को प्राप्त नहीं होता। वह दीर्घकाल तक स्वर्ग-सुख का भोग करता है; फिर ज्ञानियों और योगियों के बीच उसका जन्म होता है जहाँ पूर्वाभ्यास के कारण उसे शीघ्र योग की प्राप्ति होती है। (अ. 6, 38-47)
8. समाधि- जब ध्याता ध्येयाकार हो जाता है और उसका स्वरूप शून्य हो जाता है तब वही ध्यान समाधि हो जाता है। तर, तम अवस्था के अनुसार समाधि के अनेक भेद किए गए हैं। योगसूत्र में धारणा, ध्यान और समाधि तीनों एकत्र संयम कहे गये हैं। संयम के फलस्वरूप अनेक अद्भुत शक्तियाँ प्राप्त होने की बात कही गई है, यथा अपने शरीर पर संयम करने से अन्तर्धान होने की शक्ति (3-20) ; सूर्य पर संयम करने से भुवनज्ञान (3.26); नाभिचक्र पर संयम करने में शरीर की संरचना का, उसकी भिन्न-भिन्न धातुओं का ज्ञान (3.29) आदि। योग की 1. अणिमा, 2. लघिमा (हल्का होने की शक्ति), 3. महिमा (बढ़ जाने की शक्ति), 4. प्राप्ति (किसी वस्तु तक पहुंचने की शक्ति), 5. प्राकाम्य (अमोघ इच्छाशक्ति), 6. वशित्व (भौतिक पदार्थों को अपने वश में रखने की शक्ति), 7. ईशित्व (भौतिक पदार्थों को उत्पन्न और विनष्ट करने की शक्ति), 8. यथाकामावसायित्व (सत्य संकल्पता), ये आठ सिद्धियाँ तो सुप्रसिद्ध हैं ही। परन्तु ये सिद्धियाँ अनुभूतिगम्य ही हो सकती हैं, इन्हें तर्कसिद्ध नहीं किया जा सकता। इन समस्त सिद्धियों के प्रति वीतरागता के फलस्वरूप ही कैवल्य, प्रकृति के बंधन से मोक्ष की सिद्धि होती है जो योग का चरम लक्ष्य है।
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