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स्वर्ण-जयन्ती गौरव-ग्रन्थ
तब जैसे रानी मक्खी उड़ती है तो सभी श्रमिक मधुमक्खियाँ उड़ जाती हैं और फिर वह जहाँ बैठती है वहाँ सभी बैठ जाती हैं, इसी प्रकार इन्द्रियाँ चित्त का अनुगमन करती हैं। जैसे-जैसे चित्त वृत्तियों के निरोध की ओर जाता है वैसे-वैसे इन्द्रियाँ उसके साथ चलती हैं, विद्रोह या विक्षेप नहीं करती हैं। प्रत्याहार के परिणाम स्वरूप इन्द्रियों की परमावश्यता होती है, ऐसी वश्यता जो फिर शिथिल नहीं होती। 6. धारणा- चित्त को किसी एक स्थान पर केन्द्रित करने की क्रिया को पतञ्जलि धारणा कहते हैं। यह स्थान साधक के शरीर के अन्दर हो सकता है, यथा, नाभिचक्र, हृदयपुण्डरीक, नासिकाग्र, भ्रूमध्य इत्यादि। धारणा किसी बाह्य विषय की भी जा सकती है। परन्तु इसकी शर्त यह है कि 'प्रत्याहार' में जो चित्त के प्रति इन्द्रियों का समर्पण हुआ वह किसी भाँति डिगने न पाये। मन की भ्रान्त अवस्था को 'क्षिप्त' कहा गया है, जहाँ वह एक विषय से दूसरे विषय की ओर प्रवृत्त होता रहता है। उद्वेलित और भोगोत्सुक अवस्था को 'विक्षिप्त' कहा गया है। इन दोनों अवस्थाओं में रजोगुण की प्रधानता रहती है। मन की निष्क्रिय अवस्था को 'मूढ़' कहा गया है जहाँ तमोगुण का प्राधान्य रहता है। जब मन अपनी सारी शक्तियों को किसी एक वस्तु पर केन्द्रित करता है तो उसे एकाग्र कहते हैं। द्रोणाचार्य द्वारा धनर्विद्या की परीक्षा के क्रम में जब अर्जन ने कहा कि उसे केवल चिड़िया की आँख (लक्ष्य) दीख रही थी, तब उसका मन एकाग्र था। योग-साधना में मन की चरमावस्था को 'निरुद्ध' कहा गया है जहाँ मन, बुद्धि और अहंकार पूर्णतः चित्त के नियंत्रण में आ जाते हैं, अहंभाव का लोप हो जाता है। धारणा मन की एकाग्रता की स्थिति है। यहाँ से योगी की आध्यात्मिक उपलब्धि शुरू होती है। इसलिए पतञ्जलि ने इसे विभूति पाद के अन्तर्गत रखा है। 7. ध्यान- धारणा में ज्ञानवृत्ति की एकतानता नहीं होती है। वह त्रुटित या खण्डित होती रहती है। यह ज्ञानवृत्ति जब एकतान हो जाती है तो वह ध्यान की अवस्था कहलाती है। जैसे जल जिस पात्र में रखा जाता है उसी का आकार ले लेता है, वैसे ही ध्यान की अवस्था में मन ध्येय वस्तु-रूप हो जाता है। इसलिए ब्रह्म या परमात्मा का ध्यान करने का विधान किया गया है जिसका वाचक ऊँकार या प्रणव है। इससे योगी के स्वात्म की सर्वात्म में संलीनता की अनुभूति होती है।
प्रायः सभी धर्मों में ध्यान की महिमा गाई गई है और इसे आध्यात्मिक साधना का अनिवार्य अंग बताया गया है। पिछले कुछ दशकों में मानों ध्यान को लेकर एक क्रान्ति ही हो गयी है। आध्यात्मिक उपलब्धि के साथ-साथ भौतिक उपलब्धियों, यथा रोगी के लिए स्वास्थ्य-लाभ आदि के लिए भी इसका प्रयोग किया जाने लगा है।
ध्यान का मुख्य उद्देश्य तो आध्यात्मिक ही है। परन्तु इस क्रम में ध्याता को भौतिक उपलब्धियाँ भी होती हैं। जैसे बिजली के बल्व के फिलामेंट में जब निर्बाध रूप से विद्युत का प्रवाह होता है तब वह चमकने लगता है। इसी तरह ध्यान से साधक की बुद्धि और मन प्रखर हो जाता है। उसका मुखमण्डल दीप्तिमान और शरीर स्वस्थ हो जाता है। उसकी वाणी मधुर और गम्भीर हो जाती है। इनके अतिरिक्त उसे अतिमानवीय शक्तियों
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