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अष्टाङ्गोग
लिए योग के अगले अंग, प्राणायाम का अभ्यास सुकर हो जाता है। ध्यान रहे कि आसन केवल शरीर को सुगठित बनाने के साधन नहीं । वे शरीर को योग की साधना के योग्य बनाने के साधन हैं जिस साधना का अंतिम लक्ष्य समाधि और कैवल्य है। यद्यपि योगी को शरीर के प्रति मोह नहीं होता, तथापि अन्तरात्मा के वाहक के रूप में वह, शरीर का सम्मान करता है, उसके रख-रखाव और उपादेयता पर पूरा ध्यान रखता है। आसन शरीर को योग-साधना के लिए उपादेय बनाने के साधन हैं। आसनसिद्धि से साधक शीतोष्ण, मृदु-कठोर, स्निग्ध-रुक्ष आदि द्वन्द्वों के स्पर्श से अभिभूत नहीं होता है।
पतञ्जलि ने आसनों पर विशेष जोर नहीं दिया है। योग की एक पद्धति हठयोग कहलाती है। इसका विस्तार से विवेचन स्वात्मारामकृत 'हठयोग प्रदीपिका' में किया गया है। हठयोग कायशुद्धि, आसन, मुद्रा आदि पर विशेष जोर देता है। पतञ्जलि की पद्धति में लक्ष्य समाधि है और साधन की आवश्यकता वहीं तक है जहाँ तक वे सरलता और त्वरा के साथ लक्ष्य तक पहुंचने में सहायक हों। इसलिए हठयोग के सम्मुख पतञ्जलि की पद्धति को 'राजयोग' (सरलता या आसानी से साध्य योग ) कहा गया है।
4. प्राणायाम - प्राणायाम योग का चतुर्थ अंग है। यहाँ प्राण का अर्थ श्वास-प्रश्वास है; उसका आयाम अर्थात् विस्तार या नियंत्रण प्राणायाम है। पतञ्जलि ने इसे श्वास-प्रश्वास के बीच गति-विच्छेद के रूप में परिभाषित किया है। अर्थात् श्वास लेना, प्राणवायु से फेफड़ों को भरना, तदनन्तर उसे रोकना और इसके बाद छोड़ना, फिर छोड़ने के बाद भी श्वसन क्रिया को किंचित् कालपर्यंत अवरुद्ध करना और फिर श्वास भरना। इसी क्रिया को दुहराना। श्वास लेते हुए फेफड़ों को वायु से भरने की क्रिया को पूरक ( भरनेवाली क्रिया) कहते हैं। श्वास लेकर प्राणवायु को भीतर रोकने की क्रिया को अन्तः कुम्भक और श्वास छोड़कर पुनः श्वास लेने की क्रिया को किचित् कालपर्यंत रोकने की क्रिया को बाह्य कुम्भक कहते हैं।
प्राणायाम कठिन साधना है और इसे सुयोग्य गुरु से सीखना चाहिए तथा गुरु के सानिध्य में ही प्रारंभिक अभ्यास करना चाहिए। अन्यथा गलती होने के घातक दुष्परिणाम हो सकते हैं।
प्राणायाम से जहाँ एक ओर रक्त संचार की क्रिया का विनिमन होता है और उसे स्फूर्ति मिलती है वहाँ दूसरी ओर मन और इन्द्रियों को विश्राम मिलता है, बुद्धि निर्मल और प्रसन्न हो जाती है। पतञ्जलि कहते हैं कि मोह के कारण विवेक ज्ञान के ऊपर जो एक आवरण पड़ा रहता है वह प्राणायाम के अभ्यास से क्षीण होता है। कहा गया हैप्राणायाम से बढ़कर कोई तप नहीं है। इससे शारीरिक और मानसिक मलों की विशुद्धि होती है और ज्ञान दीप्त होता है।
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5. प्रत्याहार - इन्द्रियाँ स्वभाव से ही क्षोभकारी होतीं हैं। वे विषयों की ओर मन को ले जातीं हैं और बुद्धि को विवश कर देती हैं। इस स्वेच्छचार को छोड़कर इन्द्रियों का चित्त का अनुगामी हो जाना ही प्रत्याहार है। प्रत्याहार के अभ्यास में इन्द्रियों को उनके विषयों से विमुख किया जाता है। विषय-विमुख होने पर इन्द्रियाँ चित्त की अनुगामी हो जाती हैं।
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